आम चुनाव की रणभेरी बज चुकी है। सेनाएं मोर्चा संभाल रही हैं। परंतु इस चुनाव को पिछले अन्य चुनावों के मुकाबले अधिक खास कहा जा रहा है। क्यों कहा जा रहा है? इसके अपने-अपने जवाब हैं और अपने-अपने तर्क। एक तरफ सत्ता में काबिज भाजपा के हौसले सातवें आसमान पर हैं, तो विपक्ष सही मायने में मुद्दों से लेकर एकजुटता जैसी समस्याओं से अभी भी जूझ ही रहा है। इस चुनाव की खास बात यह है कि जो मुद्दे आम चुनाव में होते रहे हैं या होने चाहिए, वो जनता के बीच चर्चा का विषय तो नहीं हैं।
लोकसभा चुनावों की तारीखें घोषित किए जाने के साथ ही जैसी कि उम्मीद थी, सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच बयानबाजी और तेज हो गई। 20वीं सदी का अंतिम दशक अगर राजनीतिक अस्थिरता का पर्याय बन गया था तो 21वीं सदी अपने साथ स्थिरता लेकर आई। न केवल अटल बिहारी वाजपेयी की अगुआई वाली सरकार ने अपना कार्यकाल पूरा किया बल्कि उसके बाद पहले डॉ. मनमोहन सिंह और फिर नरेंद्र मोदी की अगुआई वाली सरकारों ने देश को लगातार 10-10 साल का शासन दिया।
अब इस बार के चुनाव में जहां भाजपा नेतृत्व अगले 20 वर्षों का विजन पेश कर रहा है, वहीं कांग्रेस नेतृत्व इसे लोकतंत्र बचाने का आखिरी मौका करार दे रहा है। यानी इन चुनावों का फलक पांच साल के काम के आधार पर अगले पांच साल के लिए जनादेश के सामान्य ट्रेंड तक सीमित नहीं रहा।
दिलचस्प है कि सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी इस चुनाव में जिन फैसलों पर सबसे ज्यादा जोर दे रही है, वे भले पांच वर्षों के मौजूदा सरकार के कार्यकाल के दौरान लिए गए हों, लेकिन उन मुद्दों से जुड़े हैं जो वर्षों नहीं, दशकों से भाजपा और हिंदू संगठनों के मूल मुद्दों के रूप में पहचाने जाते रहे हैं। चाहे राममंदिर, अनुच्छेद 370 और सीएए की बात हो या ज्ञानवापी मस्जिद के अंदर पूजा शुरू होने की। ये सारे मुद्दों के साथ भाजपा दावा कर रही है कि वह जो कहती है, करके दिखाती है।
विपक्षी दलों ने इन चुनावों में उन लोगों को संबोधित करने और अपनी ओर खींचने की रणनीति बनाई जो भाजपा के जाने-पहचाने नैरेटिव के प्रभाव से बाहर माने जाते हैं। विपक्षी गठबंधन इंडिया बना कर हर सीट पर साझा प्रत्याशी खड़ा करने की सोच के पीछे यही इरादा था। मगर नीतीश कुमार की एनडीए में वापसी और ममता बनर्जी का इंडिया से बाहर रहने का फैसला इस रणनीति के आजमाए जाने से पहले ही नाकाम होने का संकेत है।
देखा जाए तो महंगाई, भ्रष्टाचार और बेरोजगारी जैसे पुराने मुद्दे भी उठाए ही जा रहे हैं, लेकिन वोटर के बीच फिलहाल तो इनकी भनक नहीं सुनाई दे रही है। वह कितनी भी समस्याओं से बेजार है, आत्महत्या तक कर रहा है, लेकिन इन मुद्दों की बात नहीं कर रहा। कांग्रेस नेता राहुल गांधी इन मूल मुद्दों को लेकर दो-दो यात्राएं कर चुके हैं। लोगों का उन्हें साथ तो मिला, लेकिन वोट के रूप में उन्हें पहली यात्रा में तो कम से कम कुछ खास मिला नहीं। अब दूसरी यात्रा के असर को लेकर चर्चा शुरू हो गई है।
वैसे तो सत्तापक्ष ने यह कहकर राहुल की यात्रा की आलोचना की है कि राहुल की यात्रा का यह समय उचित नहीं है। खुद विपक्षी गठबंधन और कांग्रेस के अंदरखाने में भी यही सवाल उठाया जा रहा है कि चुनाव के समय यात्रा क्यों? इसका जवाब भी है। लेकिन जनता के बीच इस समय राम मंदिर से लेकर सीएए और ज्ञानवापी की गूंज इन मुद्दों से कहीं ज्यादा है। अब यह मीडिया और सोशल मीडिया के माध्यम से प्रायोजित कराया गया है, या फिर वास्तव में जनता इनसे प्रभावित है और कितनी प्रभावित है, यह बात अलग है।
एक नजर इन चुनावों की प्रक्रिया पर भी डालते हैं। विपक्ष आरोप लगा रहा है कि सात चरणों में होने वाले चुनाव का फायदा सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) को मिलेगा, जबकि 2019 के लोकसभा चुनाव भी सात चरणों में हुए थे। इन आरोपों में कितनी सच्चाई है, ये तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन कुछ बिंदु विचार में अवश्य लाए जा रहे हैं। मसलन, राजस्थान और मध्य प्रदेश में आम चुनाव के लिए इस बार वोटिंग 2019 लोकसभा चुनाव की तुलना में पहले हो रही है। माना जा रहा है कि बीजेपी को इसका फायदा मिल सकता है और पार्टी राज्य में नंवबर में विधानसभा चुनाव में मिली जीत का फायदा आम चुनाव में भी उठा सकती है। राज्य के वोटरों में भी विधानसभा चुनावों में किए गए लोकलुभावन वादे पूरे करने का असर आम लोगों पर दिख सकता है। तेलंगाना में जहां कांग्रेस ने विधानसभा चुनाव में बड़ी जीत दर्ज की थी वहां, वोटिंग चौथे चरण में होगी। जबकि 2019 के लोकसभा चुनाव में यहां पहले चरण में ही वोटिंग हुई थी। तमिलनाडु में इस बार लोकसभा चुनाव पहले चरण में होंगे। 2019 के आम चुनाव में यहां वोटिंग दूसरे चरण में हुई थी। महाराष्ट्र में इस बार 5 चरण में वोटिंग होगी। जो पहले चरण से शुरू होगी। आंध्र प्रदेश में जहां इस बार बीजेपी ने टीडीपी और जन सेना के साथ गठबंधन किया है, वहां तीसरे चरण में चुनाव होना है। 2019 के लोकसभा चुनाव में यहां पहले चरण में वोटिंग हुई थी। माना जा रहा है कि तीसरे चरण में वोटिंग होने से इस नए-नए बने गठबंधन को मौका मिल जाएगा।
ये तो तर्क हैं। असल में क्या होता है, आगे पता चलेगा। हां, इतना अवश्य है कि जिस तरह से चुनाव आयुक्तों की चयन प्रक्रिया अपनाई गई और जिस तरह से चुनाव आयोग का रवैया पिछले लंबे समय से देखने को मिल रहा है, कहीं न कहीं वह सत्ता से प्रभावित तो लग ही रहा है। इन आरोपों को गलत साबित करने के आयोग की तरफ से खास प्रयास भी नहीं दिखाई दिए।
कुल मिलाकर चाहे चुनाव प्रक्रिया हो, या फिर चुनावी मुद्दे, सत्तापक्ष ही हावी दिखाई दे रहा है। हिंदी बैल्ट में तो जैसे एकतरफा चुनाव लहर का अहसास होने लगा है। धार्मिक मुद्दे, सामाजिक और आर्थिक मुद्दों पर भारी पड़ते नजर आ रहे हैं। चुनाव में असल मुद्दे हवा हो गए। जो जनता समस्याओं से हलाकान है, जिन मुद्दों को लेकर रोती दिखती है, चुनाव के मौके पर खुद ही भूल रही है। या उसे भुलाया जा रहा है, यह भी कहा जा सकता है। सत्तापक्ष या उससे जुड़े लोग इसे राजनीतिक चेतना का दौर कह सकते हैं, परंतु विशेषज्ञ इसे पूरी तरह से खारिज करते हैं। लोकतंत्र के लिए यह दौर घातक भी हो सकता है। फिर भी उम्मीद बचाकर रखते हैं। अंधेरे में रोशनी की कोई किरण तो फूटेगी।
– संजय सक्सेना