बज गई रणभेरी। फूंक दिए गए बिगुल। अब सैनाएं कमर कस कर मैदान में उतरने को तैयार हैं। कुछ तो उतर गई हैं। लेकिन जब विचार करते हैं कि चुनावी जंग आखिर किस मुद्दे पर या किन मुद्दों पर लड़ी जा रही है, तो एक शून्य सा दिखाई देता है। एक तरफ तो हम ताल ठोक कर कहते हैं कि हमारा लोकतंत्र मजबूत हुआ है। दूसरी तरफ आज भी मतदाताओं को लुभा कर वोट हासिल किए जा रहे हैं। भ्रमित करके सत्ता हासिल करने के प्रयास चल रहे हैं। गौर कीजिए, क्या वास्तव में यह चुनाव भी मुद्दों पर हो रहा है? उन मुद्दों पर जो आम आदमी का जीवन चलाते हैं। जिनके कारण लोग आत्महत्या कर रहे हैं। जिनके कारण अपराध बढ़ रहे हैं। जिनके कारण जातिगत संघर्ष बढ़ रहे हैं।
वे हर पाँच साल में संसद जीतने आते हैं। कल किसी और पार्टी में थे, आज किसी और चुनाव चिन्ह के साथ हमारे सामनेे मौजूद हैं। राजनीतिक प्रहसन का दौर तेज हो गया है। अपनापन दिखाने का सिलसिला यह है कि कोई गली में बर्तन मांजती महिला के साथ उन्हीं बर्तनों को धोने बैठ जाता है। कोई रास्ते में दिखते हर बच्चे-बुजुर्ग से आशीर्वाद लेता फिरता है। कोई पकौड़े तलने लगता है, तो कोई क्रिकेट का बैट पकड़ कर चौके-छक्के लगाने लगता है।
ये दिखावा कब तक है? क्यों है? और इसका कारण क्या है? हम सब जानते हैं। देख रहे हैं कि कैसे कुर्ते के मैले होने की परवाह किए बग़ैर हमारे चरणों में गिरा पड़ा है? कैसे लाखों के चश्मे के भीतर भी उसकी नजरें महिलाओं के सम्मान में झुकी हुई हैं? और हम उन पर जैसे तरस खाने लगते हैं। उनकी बातों में आने लगते हैं। उनके झूठे दावों पर भरोसा करने लगते हैं। संवेदनाओं के ज्वार में गोते लगाने लगते हैं। लेकिन, हमारी यही दया, हमारी यही करुणा और कड़वे शब्दों में कहें तो मूर्खता को ये वर्षों से भुनाते आ रहे हैं। एक बार वोट पड़े कि आप कौन?
और करें क्या? आखिऱ करोड़ों खर्च करके कोई गली मोहल्लों में पाँच साल क्यों घूमे? वो दिन लद गए जब नेताओं में नैतिकता नाम की कोई चीज हुआ करती थी। कोई पैदल तो कोई साइकल पर प्रचार करते चुनाव जीत जाता था। और विधायक, सांसद या मंत्री रह चुकने के बाद भी वापस उसी साइकल पर आ ज़ाया करता था। लोगों के बीच में रहता, जितना संभव हो, उनके काम आ जाता था।
एक तरफ राजनीतिक पार्टियों को मिल रहे चंदे पर बड़ी बहस छिड़ी हुई है। सुप्रीम कोर्ट के कहने के बावजूद एक बैंक चंदे का पूरा डेटा एक बार में चुनाव आयोग को नहीं दे पा रहा है। और आंकड़े दे भी दिए तो उससे होना क्या है? जो विपक्ष इसे मुद्दा मानकर चल रहा है, एक तो वह खुद भी चंदा ले रहा है। दूसरी और महत्वपूर्ण बात यह है कि जनता इस बारे में कुछ सुनना ही नहीं चाह रही है।
मुद्दे उठ रहे हैं तो राजनीतिक रैलियों में। प्रेस कान्फ्रेंस में। बयानों और सोशल मीडिया के माध्यम से जनता तक पहुंचाने के प्रयास किए जा रहे हैं। लेकिन जनता के बीच कुछ पहुंच नहीं पा रहा है। शायद हम अपने मुद्दों को उन तक पहुंचाने की कला भूल गए। या हमें वह कला आती ही नहीं है। तभी तो जो सत्ता में पहुंच जाता है, अपनी कलाबाजियों से जनता को आसानी से भ्रमित कर लेता है। जाति, धर्म और संप्रदाय की भूल भुलैयों में लोग घूम रहे हैं। समस्या बढऩे पर संघर्ष करने का माद्दा जैसे खत्म हो गया है। तुरंत आत्महत्या करके समाधान निकाल लिया जाता है।
राजनीति का आधार पैसा होता जा रहा है। और मतदाता का एक हिस्सा भी ऐसा है, जो बिकने के लिए तैयार है। जो किसी न किसी रूप में बिकता ही है। कोई नकद योजनाओं में बिक रहा है तो कोई चुनाव के दौरान मिलने वाले उपहारों में। नकद याजनाओं की रेवड़ी तो हर पार्टी दे रही है और सत्तापक्ष ने तो एक बड़े हिस्से को पूरी तरह से खरीद ही रखा है। यह कड़वा सच है। हम बेरोजगारी, महंगाई, और सामाजिक कुरीतियों के साथ ही बढ़ते अपराधों को मुद्दा नहीं मान रहे हैं। हम जातिवाद और संप्रदायवाद को मुद्दा नहीं मान रहे। उलटे इसमें और अधिक उलझते जा रहे हैं।
कुल मिलाकर हालात कुछ ठीक नहीं दिख रहे। यह लोकसभा चुनाव जिन मुद्दों पर हो रहा है, वो न तो देश के लिए और न ही हमारे समाज के लिए ठीक हैं। इन मुद्दों के अंदर छिपे असल लक्ष्य, असल उद्देश्य को हम समझने के लिए तैयार ही नहीं हैं। हमें ऊपरी दिखावा ही समझ आ रहा है। उसी की संवेदना में बहने के लिए तैयार हैं। और यही हमारी और हमारे देश की विडम्बना है। हम एक हजार साल पहले वाली उसी मानसिकता पर पहुंच गए हैं, जिसके कारण हम गुलाम हुए थे। बात कड़वी है। पर सच है। हम अपना और आने वाली पीढ़ी का भला चाहते हैं, तो मुद्दों की बात करें। संवेदनाओं के भुलावे में आने के बजाय सच को देखने का प्रयास करें। तो ही हम अपने लोकतंत्र को, अपने देश को, और अपने स्वाभिमान को बचाकर रख पाएंगे।
– संजय सक्सेना