एम्स यानि अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान। भोपाल में स्थापित होने के बाद से एम्स कई मायनों में चर्चित होता आ रहा है। कभी भर्तियों में फर्जीवाड़ा तो कभी कोई अन्य मुद्दा सामने आता रहा है। अभी यहां एम्स आए बहुत अधिक समय नहीं हुआ, लेकिन इसे छोडक़र जाने वाले डाक्टरों की भी लाइन लगी हुई है।
एम्स के नए डायरेक्टर आमद दे चुके हैं। मीडिया में खबरें छपवाने का शौक तो डायरेक्टर साहब को बहुत है, लेकिन न तो एम्स की व्यवस्थाओं से उन्हें कोई खास सरोकार दिखता और न ही मीडिया के लोगों से मिलने में दिलचस्पी। व्यवस्थाओं के बजाय कार्यक्रमों के आयोजन और उनके प्रचार-प्रसार का बहुत शौक उन्हें है। यही हाल यहां के नवनियुक्त अध्यक्ष का है। भोपाल के बहुत बड़े चिकित्सक हैं डा. सुनील मलिक। लेकिन चिकित्सा के बजाय व्यवसाय में उनकी रुचि अधिक है। उन्हें जब से एम्स भोपाल का चेयरपर्सन नियुक्त किया गया है, फोटो छपवाने के अलावा किसी अन्य चीज में उनकी रुचि कहीं दिखाई नहीं देती। एम्स की व्यवस्थाओं या प्रबंधन को लेकर उन्होंने कोई खास कदम उठाए भी नहीं हैं। वीवीआईपी इतने अधिक हो गए हैं कि फोन उठाने के लिए उनके पास समय ही नहीं होता।
अब आते हैं एम्स की व्यवस्थाओं पर। भोपाल का यह आज की तारीख में सबसे बड़ा अस्पताल कहा जा सकता है। लेकिन व्यवस्थाओं के नाम पर गरीब ही है। यहां आसानी से इलाज मिल जाए, यह संभव नहीं है। और इमरजेंसी में तो हालात और खराब हैं, विशेषकर रात के समय। मरीज जाता है तो यहां वरिष्ठ चिकित्सक होते ही नहीं हैं। जूनियर चिकित्सक अपने हिसाब से ही मरीज को ट्रीट करते हैं। एक नजारा शुक्रवार आठ अगस्त की रात का दिखाते हैं। चार या पांच डाक्टर इमर्जेंसी में तैनात हैं। तीन ही ड्यूटी ठीक से करते दिखते हैं। मरीजों को ठीक से देख रहे होते हैं। दो डाक्टर नेतागिरी करते दिखाई दे रहे हैं। इनमें से एक डाक्टर से मरीज के परिजन बात करते हैं। थोड़ा डपटते हुए कहते हैं, देख रहे हैं। हमें लगेगा तो भर्ती करेंगे। इस बीच एक वरिष्ठ चिकित्सक से मरीज के परिजन बात करवाते हैं। बड़ी मुश्किल से बात करते हैं, लेकिन जिस मरीज के लिए बात करवाई गई, उस डाक्टर ने उसे कतई नहीं देखा। कुछ डाक्टरों की ड्यूटी बदली। एक महिला चिकित्सक आधा घंटे बैठी रही, लेकिन मरीज नहीं देखा। बोली, यहां जो ड्यूटी पर आएंगे, वही देखेंगे। कुछ मरीजों को बड़ी लापरवाही से देखा गया। जांच के लिए भेज दिया। कुछ को साफ कह दिया गया कि हमारे यहां इसकी व्यवस्था नहीं है। आप भर्ती लायक नहीं हैं। बेचारे मरीज को एक अस्पताल से रेफर करवा कर लाए थे, वापस कर दिया गया। अभद्र व्यवहार भी किया गया। लापरवाही अलग। लग ही नहीं रहा था कि ये भारत सरकार का नामी अस्पताल है, जहां बहुत अच्छे चिकित्सक भी हैं। और बेहतर इलाज भी मिलता है। डाक्टरों को शायद अच्छे व्यवहार का प्रशिक्षण नहीं दिया जाता। और उन्हें ये भी नहीं बताया जाता कि यदि किसी वरिष्ठ चिकित्सक का फोन आए तो उस मरीज के साथ बदतमीजी नहीं करना चाहिए। चेयरपर्सन के पास भी एक मरीज के लिए संदेश भेजा गया, लेकिन मलिक साहब का कोई संदेश अस्पताल नहीं पहुंचा। डाक्टर साफ मुकर गए। मलिक साहब के पास शायद दूसरा अपाइंटमेंट होगा। उन्हें पैसे गिनने से फुर्सत नहीं। वीआईपी के लिए ही उनके पास समय है। आखिर चेयरपर्सन भी उन्हीं लोगों ने बनवाया है।
और हां, न्यूरोलाजी विभाग को लेकर कहा गया कि हमारे पास कम डाक्टर हैं। उसके मरीज हम भर्ती नहीं कर सकते। भर्ती करेंगे भी तो मेडिसिन विभाग में। डाक्टर आ पाएंगे या नहीं, यह नहीं बता सकते। आप चाहें तो मरीज को वापस उसी अस्पताल में ले जा सकते हैं, जहां से लाए हैं।
ये कहानी रात की है। सुबह के नजारे और भी भयावह हैं। सुबह से सैकड़ों लोग लाइन में लगते हैं, तीन-चार घंटे बाद कई लोगों को वापस कर दिया जाता है। और अंदर भी इतने साल बाद भी व्यवस्थाएं दुरुस्त नहीं हो पाई हैं। लेकिन अस्पताल प्रबंधन का ध्यान व्यवस्थाओं पर नहीं, आयोजनों और उनके प्रचार-प्रसार पर ही ज्यादा रहता है। रोजाना दर्जनों मरीज मायूस होकर लौट जाते हैं। किसी का क्या? उन्हें तो सरकार सेलरी दे रही है। ज्यादा होता है हड़ताल कर देते हैं। लेकिन मजाल है, अपना व्यवहार सुधार लें।