जिसका डर था, वही शुरुआत हो गई। वैसे तो यह कोई नई बात नहीं है कि किसी भी आविष्कार का दुरुपयोग नहीं हुआ हो, लेकिन जब से एआई यानि कि आर्टीफिशियल इंटेलीजेंस का प्रसार शुरू हुआ है, तब से लाभ के बजाय नुकसान की आशंकाएं बहुत ज्यादा व्यक्त की जा रही हैं। हाल में गूगल के एआई प्लैटफॉर्म जेमिनाय की ओर से दिए गए गलत और आपत्तिजनक जवाबों से उपजे विवाद को खतरे की घंटी कहा जा सकता है।
भले ही इस मामले में गूगल ने माफी मांग ली है, लेकिन एआई के पूर्वाग्रहों से जुड़ा यह मसला न तो छोटा है और न ही इसे मामूली कहा जा सकता है। चाहे भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लेकर पूछा गया सवाल हो या अमेरिका में डेमोक्रेटिक और रिपब्लिकन दलों से जुड़ा प्रश्न या द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान नाजी सैनिक बनाने की बात- जेमिनाय के रेस्पॉन्स ने अगर सनसनी फैलाई तो वह स्वाभाविक था। लेकिन ध्यान में रखने की बात यह है कि ये तो सिर्फ कुछ उदाहरण ही हैं। ज्यादा महत्वपूर्ण इस एआई प्लैटफॉर्म की फंक्शनिंग में निहित वे गड़बडिय़ां हैं, जिनकी ओर ये संकेत कर रहे हैं।
वैसे, इस तरह के मामले सिर्फ किसी एक कंपनी या खास एआई प्लेटफॉर्म तक भी सीमित नहीं है। अगर कोई एक प्लेटफॉर्म किसी एक मामले में गड़बड़ी करता है तो दूसरा किसी और मामले में कर सकता है। अब तक के अनुभव बताते हैं कि एआई पर संदेह करने के ठोस कारण हैं। मिसाल के तौर पर, एमेजॉन द्वारा 2014 में बनाए गए एक एआई बेस्ड इवैल्यूएशन टूल का जिक्र किया जा सकता है, जिसे 2018 में हटा दिया गया था। पहले की नियुक्तियों से जुड़े डेटा के आधार पर यह क्वॉलिफाइड कैंडिडेट्स के पूल से महिलाओं को बाहर करना सीख गया था।
खास बात यह है कि ऐसे एआई टूल के सिस्टम से पुराने पूर्वाग्रहों को दूर करने की प्रक्रिया में भी एक खतरा है। यह सिस्टम पुराने पूर्वाग्रहों को छोडऩे के क्रम में नए पूर्वाग्रहों को अपना सकता है, जिनका पता लगाना और उन्हें दूर करना एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया साबित हो सकती है। वैसे इसके लिए एआई सिस्टम को या उसकी फंक्शनिंग को पूरा दोष नहीं दिया जा सकता। बड़ा सवाल यह है कि इसे फीड कैसे किया जा रहा है? इसे जरूरी डेटा कहां से मिल रहा है? किताबों और अकैडमिक पेपर्स जैसे प्रामाणिक स्रोत कम पड़ जाते हैं। उसके बाद विकिपीडिया और ब्लॉग जैसे स्रोतों पर इन प्लैटफॉर्म्स को निर्भर किया जाता है। और फिर, आजकल सोशल मीडिया पर जिस तरह से लोग गलत आंकड़ों से लेकर भ्रमित करने वाला पूरी तरह से गलत इतिहास डाल रहे हैं, गूगल से लेकर तमाम प्लेटफार्म उसका उपयोग भी करने लगते हैं। एआई के पास कोई ऐसा रिकार्ड तो है नहीं, जिससे नई सूचना को प्रमाणित किया जा सके। इसलिए गलत-सही सब कुछ चलने लगा है।
वैसे सही बात तो यह है ये सारे पूर्वाग्रह मूलत: हमारे समाज के अंदर ही हैं। लेकिन इस आधार पर इन्हें मान्य नहीं ठहराया जा सकता। यह जरूर है कि समाज के बड़े हिस्सों में इन पूर्वाग्रहों के कायम रहते एआई से उन्हें हटाना खासा चुनौतीपूर्ण साबित होने वाला है। बहरहाल एआई को जितनी अहमियत मिल रही है, जिस तरह की उम्मीदें यह पैदा कर रही है और आने वाले वर्षों में आम जनजीवन में उसकी जितनी बड़ी भूमिका बनती दिख रही है, उसके मद्देनजर पूर्वाग्रहों के इस मसले का टिकाऊ हल ढूंढने की जरूरत है।
हमें सबसे पहले तो समाज के दुराग्रहों को दूर करना पड़ेगा। क्योंकि इन दुराग्रहों के चलते हम गलत सूचनाओं को फैलाने का काम ज्यादा कर रहे हैं। हमारे दुराग्रह किसी इतिहास को नहीं बदल सकते और न ही इनसे हम सच्चाई को समाप्त ही कर पाएंगे। जिस तरह से गूगल सर्च में कई ऐसी बातें आ जाती हैं, जो सच नहीं हैं, उसी तरह से एआई का भी हाल होना तय है। हां, जो लोग इसका सही इस्तेमाल करना चाहते हैं, उनके लिए यह बहुत बेहतर प्लेटफार्म साबित होगा। नई पीढ़ी को नए आविष्कारों के लिए और अधिक प्रेरित करन के साथ ही उन्हें सच और प्रामाणिक सूचनाओं की ओर भी अग्रसर करना होगा। उन्हें सच के फायदे और झूठ या गलत सूचनाओं के नुकसान भी बताने होंगे। केवल कुछ सामाजिक, राजनीतिक फायदे के लिए हम एआई या अन्य प्लेटफार्म को दुरुपयोग करेंगे तो नुकसान हमारा ही होना है। सरकारों को इसके लिए कानून तो बनाना ही होगा, इस पर लगातार नजर रखने के लिए बाकायदा एजेंसी तैनात करनी होगी, ताकि किसी बहुत बड़े नुकसान से बचा जा सके।
– संजय सक्सेना