भोपाल। जंग में सब जायज है, ये बात हर तरह की जंग पर लागू होती है। फिलहाल मध्य प्रदेश के विधानसभा चुनाव अपने शबाब पर हैं। और महात्वाकांक्षाओं ने विचारधाराओं को ध्वस्त कर दिया है। टिकट के लिए पार्टी ऐसे बदली जा रही थी, जैसे कपड़े बदलते हैं। आज बीजेपी से कांग्रेस में, कोई कांग्रेस से बीजेपी में, कोई सपा, बसपा या आप में। केवल टिकट की खातिर। विधायक बनने का सपना आंखों में है, बस उसे पूरा करना है, कैसे भी करें।
संसद में महिलाओं को एक तिहाई आरक्षण दे दिया, लेकिन विधानसभा चुनाव में टिकट चौथाई भी नहीं दिए गए। आधी आबादी के कल्याण को लेकर बढ़-चढ़कर घोषणाएं हुईं, लेकिन चुनावी टिकट के मामले में दोनों ही दल एक बार फिर तंगदिली दिखा गए। बीजेपी ने 28 तो कांग्रेस ने अब तक सिर्फ तीस महिलाओं को अपना उम्मीदवार बनाया। यह संख्या 12 से 13 फीसदी है जबकि दावे 33 फीसदी की हो रहे हैं। न कोई मोदी है, न कोई राहुल गांधी। बस नाम से वोट मिल जाएं।
राहुल गांधी ओबीसी की जनगणना की बात कर रहे हैं, मध्य प्रदेश में ओबीसी उम्मीदवार उतारने के मामले में भी कांग्रेस पिछड़ गई। विरोध में पार्टी ओबीसी प्रकोष्ठ प्रदेशाध्यक्ष दामोदर यादव ने ही अपना इस्तीफा दे डाला। कुछ लोगों के टिकट केवल इस बात पर काट दिए गए कि इसके पास पैसे ही नहीं हैं चुनाव कैसे लड़ेगा?
दल बदल का रिकॉर्ड
कांग्रेस के सिद्धार्थ तिवारी ने बीजेपी का दामन थाम लिया।उनके पिता व दादा खालिस कांग्रेसी रहे,लेकिन तीसरी पीढ़ी की विचारधारा अचानक बदल गई। केवल टिकट की खातिर। और विचारधारा सिद्धांतो की दुहाई देने वाली बीजेपी ने टिकट भी दे दिया। ब्राह्मण जाति को साधने की खातिर।
करीब दो महीने पहले बीजेपी में वापसी करने वाले रीवा के अभय मिश्रा ने पुन:पाला बदल लिया।फिर कांग्रेस में आ गए। कुछ ऐसे भी हैं,जो खुद को टिकट नहीं मिलने पर पूरे जिले से अपनी ही पार्टी को हराने की बात कह रहे हैं।बीसियों उदाहरण हैं,जिनकी आस्था इस चुनाव में कपड़े की तरह बदल रही है। यानी अवसरवादिता, विचारधारा व सिद्धांतों पर पूरी तरह हावी है।
क्या हुआ मोदी – शाह की रणनीति का?
मोदी और शाह एमपी में गुजरात मॉडल लागू करने का एलान किया था। शाह कमांड करने तैयार हो गए। पता चला, शिवराज के ब्रह्मास्त्र ने दोनों को फेल कर दिया। एक भी सूची मोदी शाह के हिसाब से जारी नही हो पाई। नेतृत्व बदलने चले थे, टिकट तक नही बदल पाए। कांग्रेस की दूसरी सूची को लेकर बवाल मच रहा है, लेकिन बीजेपी की तो सारी सूचियां पार्टी की विचार धारा के अनुकूल नहीं है। आखिरी सूची देखकर तो लगता है, नेतृत्व ने पूरी तरह हथियार डाल दिए। थके थकाए चेहरे। युवा को बात करते करते बूढ़ों को मैदान में उतार दिया। इससे तो कांग्रेस ने ज्यादा युवा चेहरे उतार दिए।
मतभेद और मनभेद, दोनों…?
विधानसभा चुनाव में टिकट वितरण को लेकर मप्र कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ व पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के बीच जारी मनभेद एक बार फिर सतह पर आ गया। बात कपड़ा फाड़ने तक जा पहुंची। मौका चुनाव का है,लिहाजा इस मामले में तत्काल डेमैज कंट्रोल हुआ। इस पर यह बात भले आई-गई हो गई,लेकिन पार्टी कार्यकर्ताओं पर वरिष्ठ नेताओं के इस संवाद का गहरा असर हुआ।टिकट वितरण के बाद उपजा कपड़ा फाड़ आक्रोश इसकी बानगी है। गनीमत यह रही,कि वरिष्ठ नेताओं के कुर्ते सही सलामत रहे। वैसे कांग्रेस में कपड़ा फाड़ राजनीति नई बात नहीं है। विधानसभा के पिछले सत्रों के दौरान विधायक पांचीलाल मेड़ा व जयवर्धन सिंह इसका प्रभावी प्रदर्शन कर चुके हैं।यहां तक कि मुख्यमंत्री रहते कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह भी छत्तीसगढ़ में अपना कुर्ता फटवा बैठे थे। वाकया 31 अक्टूबर 2000 का पूर्व केंद्रीय मंत्री स्व.विद्याचरण शुक्ल के फॉर्म हाउस का है। जब दिग्विजय अजीत जोगी को नवगठित राज्य का मुख्यमंत्री बनवाने वहां पहुंचे थे और शुक्ला समर्थक कार्यकर्ताओं के आक्रोश का शिकार हुए। खास बात ये रही कि दिग्विजय सिंह ने अपने ही लोगों के साथ राजनीति कर दी। खुद किसी को चुनाव लड़ने का कहा, ऐन वक्त पर दूसरे को दे दिया।
आपसी झगड़ों का दौर तेज
कुल मिलाकर पार्टियों में आपसी झगड़ों का दौर तेज हो गया है। कांग्रेस में कमल, दिग्विजय हैं तो बीजेपी में सिंधिया, तोमर, शिवराज, कैलाश विजयवर्गीय, प्रह्लाद पटेल। सब के सब सीएम पद के दावेदार। अंदरूनी झगड़ों का दौर चुनावी सरगर्मी के साथ और बढ़ता जायेगा, कोई हाई कमान इसे खत्म नहीं कर सकता।