हम भले ही लोकतंत्र और मुद्दों को लेकर बड़े-बड़े दावे करते रहें, लेकिन चुनाव में पार्टी या उम्मीदवार को न चुनने वालों की संख्या में वृद्धि असलियत बता रही है। सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले के बाद साल 2013 में वोटरों को नोटा यानि इनमें से कोई नहीं, का विकल्प मिला था। इसके बाद से हर चुनाव में मतदाताओं ने इस विकल्प को चुना है।
असल में मतदाता को अगर कोई भी उम्मीदवार पसंद न हो, तो वे नोटा का विकल्प चुन सकते हैं। चाहे लोकसभा चुनाव हो या राज्यों के विधानसभा चुनावों की बात हो, हर चुनाव में नोटा के जरिए लोगों ने उम्मीदवारों या पार्टियों को नकारा है। अपनी नाराजगी जाहिर की है। विशेषज्ञों का कहना है कि नोटा का मकसद साफ-सुथरी छवि वाले उम्मीदवारों को चुनावी मैदान में उतारना और आपराधिक छवि वाले उम्मीदवारों के बढ़ते प्रभाव को रोकना था, लेकिन ऐसा कुछ भी होते नहीं देखा गया। इसका भी विकल्प निकाल लिया गया। दो साल या इससे ज्यादा की सजा पाए व्यक्ति को ही इस श्रेणी का अपराधी माना गया है। इसलिए तमाम अपराधी प्रवृत्ति के लोग आज भी चुनाव में खड़े हो रहे हैं और लोग उन्हें चुन भी रहे हैं।
आंकड़े बताते हैं कि 2013 से हुए विधानसभा और लोकसभा चुनावों में नोटा के खाते में काफी वोट गए। कुछ निर्वाचन क्षेत्रों में तो नोटा वोट रनर-अप कैंडिडेट के बाद तीसरे नंबर पर रहा। 2014 लोकसभा चुनाव में करीब 60 लाख वोटरों और 2019 में 65 लाख से ज्यादा वोटरों ने नोटा का विकल्प चुना था। यानि साफ है कि लोगों की रुचि वोटिंग से दूर रहने की नहीं है। मतदान तो लोग करना चाहते हैं, लेकिन जो पार्टियां या उम्मीदवार सामने आते हैं, उन्हें नहीं चुनना चाहते।
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना कि राजनीति में बढ़ते अपराधीकरण को रोकने के लिए नोटा का विकल्प एक कारगर हथियार हो सकता है। चुनाव दर चुनाव नोटा का प्रभाव बढ़ता जा रहा है, जो यह दिखाता है कि वोटर पहले से ज्यादा जागरूक हो गया है। पिछले 10-11 वर्षों में देखें तो अब इसकी भूमिका बढ़ रही है। निश्चित तौर पर इसके दूरगामी असर होंगे और समय के साथ चुनाव आयोग को इसमें कुछ नए संशोधन भी करने पड़ सकते हैं। असोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉम्र्स की पांच वर्षों की रिपोर्ट के आंकड़ों को देखें तो 2019 के बाद विधानसभा चुनावों में भी नोटा को लाखों लोगों ने चुना है। 60 से 65 लाख की संख्या कोई कम नहीं है और यह दिखाता है कि वोटर अब साफ-सुथरी छवि वाले उम्मीदवारों को ज्यादा पसंद करते हैं।
कई जगह तो ऐसा भी देखा गया है कि दो उम्मीदवारों के बीच जीत का अंतर जितने वोटों का है, उससे ज्यादा वोट नोटा को मिले हैं। यानी नोटा के वोट किसी कैंडिडेट को जाते तो जीत-हार बदल भी सकती थी। हालांकि, अगर सबसे ज्यादा वोट नोटा को मिलते हैं तो री-इलेक्शन का प्रावधान भी है। वैसे अभी तक ऐसा नहीं हुआ है। कई गांवों में सडक़, बिजली, स्कूल, पेयजल और मेडिकल सुविधाओं जैसी बुनियादी जरूरतों के अभाव से जूझने की दैनिक मुश्किलों का इजहार जरूर नोटा के जरिए हुआ है।
इसीलिए नोटा का उपयोग और बढऩे को राजनीतिक पार्टियों को गंभीरता से लेना चाहिए। भले ही उनके उम्मीदवार नोटा के चलते जीत जाएं, लेकिन कई जगह ऐसा भी हो सकता है कि नोटा के कारण हार हो जाए। कम से कम उम्मीदवार का चयन करते समय पार्टियों को सावधानी बरतना चाहिए। यहां होता यह है कि जाति, संप्रदाय या अन्य ऐसे आधार पर उम्मीदवार का चयन कर लिया जाता है, जो वास्तव में उम्मीदवारी के योग्य नहीं होता।
भोपाल लोकसभा में ऐसा हो चुका है। लेकिन यहां यह दुर्भाग्य ही रहा कि नोटा भी काम नहीं आया और जिसे नहीं चुना जाना चाहिए था, उसे चुन लिया गया। यह मतदाता की भीड़ चाल का ही परिचायक है। या यह भी कह सकते हैं कि अंधी दौड़ का नतीजा है। फिर भी, नोटा के बढ़ते आंकड़ों को चुनाव आयोग से लेकर राजनीतिक दलों को गंभीरता से लेना चाहिए और बेहतर प्रत्याशियों का चयन करना चाहिए, ताकि मतदाता को अच्छा जन प्रतिनिधि मिले और उसे नोटा का उपयोग कम करना पड़े।
– संजय सक्सेना