संघ की मान्य परिपाटी से संभवत: पहली बार कोई संघ प्रमुख बाहर जाता दिख रहा है। इसीलिए तो प्रश्न उठ रहा है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने आखिर क्यों कहा कि भारत पांच हजार वर्षों से एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र रहा है? उन्होंने उस शब्द का प्रयोग किया, जिसे संघ और भाजपा सालों साल से नकारते आ रहे हैं। और कांग्रेस इसी शब्द के कारण विपक्ष में भी पहुंची, ऐसा माना जाता है।
संघ प्रमुख संघ के वरिष्ठ प्रचारक रंगा हरि की पुस्तक पृथ्वी सूक्त के लोकार्पण कार्यक्रम में बोल रहे थे। उन्होंने कहा, हमारी पांच हजार साल पुरानी संस्कृति धर्मनिरपेक्ष है। सभी तत्व ज्ञान में, यही निष्कर्ष है। हम सदियों से मानते रहे हैं कि पूरी दुनिया एक परिवार है, यह हमारी भावना है। यह कोई सिद्धांत नहीं है। इसे जानें, महसूस करें और फिर उसके अनुसार व्यवहार करें। भारत ने दुनिया को विविधता में एकता नहीं, विविधता ही एकता का मंत्र दिया है। अलग-अलग विचारों के बीच दुनिया कैसे एक रह सकती है, यह विचार भारत की सभ्यता और संस्कृति से उपजा है।
ऐसे समय में जब भारत सांस्कृतिक और वैचारिक क्षेत्र में पिछडऩे के बाद नए सिरे से उठ खड़ा हुआ है तब दुनिया में एकता स्थापित करने के लिए भारत के इस मूल मंत्र का व्यापक प्रचार होना चाहिए। संघ प्रमुख भागवत ने कहा कि राज्यों के समूह से बने राष्ट्र आज अलग-अलग कारणों से एक हैं। यहां राज्यों का समूह ही राष्ट्र है। राष्ट्र तभी तक है जब तक राज्य है। अमेरिका और यूरोपीय संघ की एकता का आधार आर्थिक है। यह स्थाई भाव नहीं है। स्थाई भाव का आधार भारत के विचारों में है।
भागवत कहते हैं, भारत ने दुनिया को बताया है कि विविधता में एकता नहीं, बल्कि विविधता ही एकता है। ऐसा पूरी धरती और दुनिया को एक मानने के कारण हुआ है। भारत ने दुनिया को बताया है कि इस एकता का आधार ढूंढऩा होगा। वह इसलिए कि मनुष्य एक साथ तो आ सकते हैं, मगर इनका एक साथ रहना मुश्किल है। अलग-अलग रहने पर नहीं, बल्कि साथ रहने पर विवाद होते हैं। ऐसे में भारत ने दुनिया को एक मानने का आधार दिया है। दुनिया को बताया है कि कैसे अलग-अलग विचार, अलग-अलग पूजा पद्धत्ति को मानने वाले एक रह सकते हैं।
संघ प्रमुख ने ये भी कहा कि भारत सदियों तक समुद्र और पहाड़ की सीमाओं के कारण सुरक्षित रहा। सुरक्षा के कारण अतीत में समृद्धि आई और इसी सुरक्षा और समृद्धि की भावना से उपजी स्थिरता की भावना ने नए विचार को जन्म दिया। हमने वसुधैव कुटंबकम के मंत्र से दुनिया को एक रहने का आधार दिया। संघ प्रमुख ने दिवंगत राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी से मुलाकात के दौरान हुई बातचीत साझा की। तब मुखर्जी ने कहा पहले कहा कि दुनिया हमें नहीं सिखा सकती। वह इसलिए कि संविधान बनाने वाले ज्यादातर लोग धर्मनिरपेक्ष थे, उससे भी हजारों साल पहले देश के लोग धर्मनिरपेक्ष थे।
संघ प्रमुख के भाषण के प्रमुख अंश इसलिए विशेष हैं, क्योंकि उन्होंने उन बातों को रेखांकित किया, जिसकी आज भारत ही नहीं, पूरे विश्व में आवश्यकता है। संघ के बारे में यही माना जाता रहा है कि संघ हिंदुत्व को ही प्राथमिकता देता है। उसका निर्माण इसी आधार पर किया गया। उसके आनुषांगिक संगठनों से लेकर उसकी राजनीतिक इकाई भारतीय जनता पार्टी का देश में विस्तार भी हिंदुत्व के आधार पर ही हुआ। वह भी कट्टर हिंदुत्व के आधार पर। आज भी भारतीय जनता पार्टी कहीं न कहीं हिंदुत्व पर ही टिकी हुई नजर आती है, यह शायद उसकी विवशता भी है।
फिर, संघ प्रमुख मोहन भागवत ने धर्मनिरपेक्षता का मुद्दा क्यों उठाया? भाजपा सहित सभी सहयोगी संगठनों में यह प्रश्न उठना तो स्वाभाविक ही है, आम आदमी भी यह सोचने को विवश हो जाएगा। कांग्रेस के धर्मनिरपेक्ष शब्द पर संघ के साथ ही भाजपा ने भी लगातार निशाना साधा है। ये आरोप लगाए जाते रहे हैं कि धर्मनिरपेक्ष के अंगे्रजी शब्द सेक्युलर की आड़ में कांग्रेस ने विशेष तौर पर मुस्लिम समुदाय का सपोर्ट किया, उसे अपना वोट बैंक बनाया। और भी बहुत कुछ..।
हां, यहां एक बात और ध्यान देने वाली है। वो ये कि संघ में वर्तमान भारतीय जनता पार्टी की राजनीतिक दिशा को लेकर आज सवाल उठाए जाने लगे हैं। संघ के अनेक पदाधिकारी भाजपा के विरोध में भी बोलने लगे हैं। पिछले दिनों जब राहुल गांधी ने भारत जोड़ो यात्रा निकाली, तो भाजपा ने हर तरह का विरोध किया, परंतु संघ के कई नेताओं ने इसका स्वागत किया। समर्थन किया। तो क्या ये माना जाए कि संघ भाजपा से दूर जा रहा है? या ये माना जाए कि भारत को लेकर दुनिया भर में जिस तरह की चर्चाएं, प्रतिक्रियाएं हो रही हैं, उन्हें देखते हुए संघ ने अपना स्टैंड बदला है? या बदल रहा है? मध्यप्रदेश में तो संघ के तीन वरिष्ठ पदाधिकारियों ने भाजपा के खिलाफ एक राजनीतिक पार्टी ही बना डाली है।
प्रश्न कई उठ रहे हैं, लेकिन संघ प्रमुख ने जिस तरह से धर्मनिरपेक्षता का अर्थ बताया है, उसका महत्व बताया है, वर्तमान परिवेश में उसकी महत्ता को रेखांकित किया है, वह बहुत मायने रखती है। सही मायने में आज वास्तविक धर्म निरपेक्षता की आवश्यकता है, जिसमें सभी लोग अपने धर्म को ठीक से मानें, परंतु दूसरे धर्मों का भी उतना ही आदर करें। धार्मिक कट्टरता के मायने दूसरे धर्म को हानि पहुंचाना कतई नहीं होता। परंतु, ये सभी धर्मावलंबियों के लिए होना चाहिए। धर्म केवल और केवल मानवता की रक्षा के लिए है, विनाश के लिए नहीं। बस ये मूल मंत्र है।
– संजय सक्सेना