कुछ तो गड़बड़ है, जो सुप्रीम कोर्ट ने चुनावी बॉन्ड बंद करवा दिया है। और भारतीय स्टेट बैंक से हिसाब भी माँगा है। चुनावी बांड जारी करने और इनकी गोपनीयता बनाए रखने की सारी जिम्मेदारी इसी बैंक के पास है। सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला आए महीना हो गया, लेकिन बैंक ने इस दिशा में कोई काम नहीं किया। यही कारण है कि सर्वोच्च न्यायालय को थोड़ा सख्त रवैया अपनाना पड़ा। एक तरह से फटकार ही लगाई।
चुनावी बॉन्ड से जुड़े फैसले पर अमल के मामले में स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के ढीले-ढाले रवैये पर सुप्रीम कोर्ट की सख्ती ने बेहद कड़ा, मगर जरूरी संदेश दिया है। शीर्ष अदालत ने चुनावी बॉन्ड से जुड़े डीटेल्स जारी करने पर लंबा वक्त देने की एसबीआई की गुजारिश न केवल खारिज कर दी, बल्कि उसके रुख पर सवाल करते हुए उसे आगाह भी किया।
यह पूरा मसला चुनावी बॉन्ड स्कीम से जुड़ा है, जिससे संबंधित प्रावधानों को सुप्रीम कोर्ट ने 15 फरवरी को दिए अपने फैसले में असंवैधानिक करार दिया था। उसी फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने स्टेट बैंक को निर्देश दिया था कि 12 अप्रैल 2019 के बाद से हुई चुनावी बॉन्ड की खरीद से जुड़े डीटेल्स 6 मार्च 2024 तक इलेक्शन कमिशन को सौंप दे। ऐसे में लगभग इस पूरी अवधि के निकल जाने के बाद बैंक सुप्रीम कोर्ट के पास 30 जून तक का वक्त देने का अनुरोध लेकर आया।
स्टेट बैंक को इसका सारा हिसाब या डेटा चुनाव आयोग को देना था और चुनाव आयोग इस पूरे डेटा को सार्वजनिक करने वाला था। अपनी वेबसाइट पर डालने वाला था। लेकिन हुआ कुछ नहीं। जब स्टेट बैंक के खिलाफ एडीआर ने अवमानना की याचिका लगाई तो बैंक के कान खड़े हुए। सोमवार को इस पर भी सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई की। बैंक ने सारा डेटा देने के लिए तीस जून तक का वक्त माँगा। इसके पीछे क्या कारण था, यह न तो बैंक ने बताया और किसी को पता नहीं। स्वयं बैंक भी इसका ठीक से जवाब नहीं दे पाया। यही कारण है कि इस मामले में संदेह पैदा होने लगे।
सुप्रीम कोर्ट ने बैंक को सिर्फ एक दिन का देते हुए सख्ती से कहा कि 12 मार्च यानी मंगलवार तक आप तमाम डेटा चुनाव आयोग को दे दीजिए और चुनाव आयोग हर हाल में 15 मार्च तक अपनी वेबसाइट पर सारा डेटा डाल दे। कोर्ट में हुई दलील और बहस से साफ़ लग रहा था कि बैंक किसी तरह अपनी जि़म्मेदारी की तारीख़ बढ़वाना चाह रहा था। बैंक के इस भाव को कोर्ट ने पूरी तरह समझ लिया और एक दिन में ही काम पूरा करने का आदेश दे दिया।
वास्तव में खुद बैंक ने ही अपने एफिडेविट में कह दिया था कि हम इस डेटा को सार्वजनिक नहीं कर सकते। यह सब एक लिफ़ाफे में बंद रहता है। कोर्ट ने यह बात पकड़ ली। बैंक से कहा कि जब सब कुछ लिफ़ाफ़े में मौजूद ही है तो दिक्कत क्या है? लिफाफा खोलिए और चुनाव आयोग को दे दीजिए। बैंक की हिचक को देखते हुए सवाल यह उठना लाजिमी है कि क्या बैंक पर राजनीतिक दलों का दबाव है? या वे राजनीतिक दल डेटा में कुछ हेराफेरी करके इसे अपनी सहूलियत के अनुसार सार्वजनिक करवाना चाहते हैं? बैंक ने तीस जून तक की मोहलत मांगी, जिससे साफ लग रहा है कि बैंक चाहता है कि यह आंकड़ा लोकसभा चुनाव के बाद जारी हो।
यानि इतना ज़रूर आभास हो रहा है कि बैंक पर कहीं न कहीं से, किसी न किसी रूप में, कोई न कोई दबाव तो रहा ही होगा। वर्ना बैंक को आखिर आंकड़े देने में परेशानी क्या हो सकती है? वह भी तब जब उसे सीधे सुप्रीम कोर्ट द्वारा कहा जा रहा हो। सर्वोच्च न्यायालय के तेवर से साफ है कि न्यायालय भी यह मानकर चल रहा है कि कहीं न कहीं कोई गड़बड़ तो होगी। जो भी हो, अब चुनावी बॉन्ड के माध्यम से राजनीतिक दलों के चंदे की हेराफेरी, अगर कोई हो रही होगी तो कम से कम सार्वजनिक तो हो ही जाएगी। यही नहीं, चुनावी चंदे के मामले में पारदर्शिता आने की संभावना भी निश्चित रूप से बढ़ जाएगी। यह लोकतंत्र के लिए एक बेहतर कदम होगा।
असल में आज के दौर में चुनाव लडऩे में जिस तरह से पैसा खर्च किया जा रहा है, वह चिंताजनक है। इससे लोकतंत्र पर धनतंत्र का दबाव बढऩे लगा है और यह साफ तौर पर दिख रहा है। चुनाव आयोग से लेकर प्रशासन में बैठे लोगों की नजरों के सामने ही सब कुछ होता रहता है, लेकिन अधिकृत तौर पर आंकड़ों में हेराफेरी करके खर्च आयोग द्वारा तय सीमा के अंदर बता दिया जाता है, जबकि असल में खर्च उससे कई गुना अधिक किया जाता है। चुनाव में वह सब कुछ हो रहा है, जो लोकतंत्र के अनुरूप तो कतई नहीं है। देखते हैं अब चंदे वाले मामले का क्या होता है? वैसे यह संदेश तो सर्वोच्च न्यायालय ने दे दिया है कि उसे लोकतंत्र की चिंता है और इसमें पारदर्शिता का वह प्रबल पक्षधर है।
– संजय सक्सेना