हरदा में बरसों से फैक्ट्री चल रही थी, लेकिन वहां काम करने वाले मजदूरों का पंजीयन श्रम विभाग में नहीं था। उसकी कोई जानकारी विभाग को नहीं है। ऐसे में इस पर भी विश्वास नहीं किया जा सकता कि विस्फोट में जितनी मौतों की संख्या बताई जा रही है, वो सही ही है। वैसे भी आसपास के लोगों का कहना है कि घटना में मरने वालों की संख्या प्रशासन द्वारा छिपाई गई है।
असल में श्रम मंत्री प्रहलाद पटेल से जब हरदा वाले मामले को लेकर सवाल किया तो इसकी एक और बड़ी खामी सामने आई। पता चला कि हरदा जिले में विगत छह फरवरी को हुए पटाखा फैक्ट्री ब्लास्ट को लेकर श्रम विभाग की जांच रिपोर्ट विभाग के मंत्री प्रहलाद पटेल ने लौटा दी। हादसे के बाद श्रम विभाग ने मजदूरों को लेकर जांच कराई थी। मंगलवार को श्रम और पंचायत मंत्री प्रहलाद पटेल प्रदेश में 9 साल बाद बढ़ाई गई मजदूरी दरों की जानकारी दे रहे थे। इस दौरान उनसे हरदा हादसे को लेकर सवाल पूछा गया था।
हरदा हादसे पर उन्होंने अपने स्वभाव के अनुरूप साफ कह दिया- मैं अपने विभाग की जांच रिपोर्ट से संतुष्ट नहीं हूं, इसलिए उसे स्वीकार नहीं किया है। मैंने मजदूरों की आइडेंटिटी को लेकर अपने विभाग से सवाल किए हैं। पूछा है कि यदि 2015 में उसी जगह पर हादसा हुआ था तो उस फैक्ट्री में काम करने वाले मजदूरों की संख्या का एनरोलमेंट क्यों नहीं था? अभी जो पीडि़त हैं, उसमें आम नागरिकों की संख्या ज्यादा बताई जा रही है।
उनका कहना था कि मजदूरों की संख्या तो 32 ही है। सवाल उठता है कि जब सूची ही नहीं हैं तो वेरिफिकेशन किस आधार पर हो रहा है? आप किसी घायल से पूछकर उसे मजदूर बता रहे हैं। उसकी बहस में नहीं पड़ रहा। लेकिन अगर आपके पास किसी इंडस्ट्री में काम करने वालों की सूची नहीं हैं तो न्याय करने का आधार क्या होगा? इसलिए मैं खुद प्रथम दृष्ट्या मैने रिपोर्ट को स्वीकार नहीं किया है। उनका यह भी कहना है कि यदि कोई पेपर हरदा के कलेक्टर या हमारे विभाग के पास हो तो दिखाएं। 2015 में ठीक इसी तरह की घटना हो चुकी है। उसके बाद भी सूची अगर उपलब्ध नहीं हैं। ऐसे में हमें अपने मैकेनिज्म पर विचार करना पड़ेगा कि क्या तरीका अपनाएं? इसके मैने निर्देश जारी किए हैं।
यहां हरदा मामले की परतें एक बार फिर उधेडऩी होंगी। देर से ही सही सरकार ने भोपाल-नर्मदापुरम के तत्कालीन कमिश्नर को हटा कर मंत्रालय भेज दिया। हालांकि उनके खिलाफ फिलहाल किसी तरह की जांच की जानकारी सामने नहीं आई है। लेकिन उनकी पदस्थापना इंदौर संभाग में कर दी गई थी और हाल ही में उन्हें हटा दिया गया। सबसे पहला मुद्दा तो इस मामले में यही सामने आया था कि संभागायुक्त ने केवल दीपावली के लिए ही सही, पटाखा फैक्टी खोलने, चालू करने या पटाखा सप्लाई करने की भी अनुमति क्यों दी? अनुमति दी गई तो किस काम की दी गई और मालिक लोग वहां क्या कर रहे थे? बेचने की अनुमति थी तो वह पटखा बनवा कैसे रहा था? इसकी कोई निगरानी नहीं रखी गई।
और जहां तक श्रम विभाग की बात है, तो वहां के अधिकारी केवल कारखानों में जाकर हफ्ता या महीनेवार वसूली करते हैं। कुछ लोगों का बंधा पैसा घर पहुंचा दिया जाता है। इसके बदले उन्हें कुछ भी करने की अनुमति होती है। निरीक्षक क्या निरीक्षण करते हैं, उनकी कार्यप्रणाली से साफ हो जाता है। यदि पैसा मिल जाता है तो कागजों में सब कुछ ओके हो जाता है, नहीं तो नोटिस जारी कर दिया जाता है। नोटिस के बाद पैसा आता है तो मान लिया जाता है कि कारखाने या संबंधित कार्यालय में सब कुछ ठीक कर दिया गया है। नहीं तो फिर कार्रवाई की बात की जाती है।
यह नई बात नहीं है। हर दूसरे कारखाने-फैक्ट्री की कमोबेश यही कहानी है। अब ठेकेदारों से लेकर तमाम अन्य कार्यालयों में भी काम करने वालों की सूचियां बनाई जा रही हैं। असंगठित कामगारों के लिए तमाम योजनाएं बनी हैं, लेकिन उनकी सूची बनाने में भी भ्रष्टाचार हो रहा है। इन सूचियों में नाम जोडऩे से लेकर सरकार की योजनाओं में मिलने वाले पैसे में कमीशन बंधा होता है अधिकारियों का। भोपाल नगर निगम में तो कामगारों के मरने के बाद सरकार से पैसा ले लिया गया और संबंधित के परिवारजनों के पास पहुंचाने के बजाय अधिकारी-कर्मचारी मिल कर खा गए। संबल योजना का बड़ा भ्रष्टाचार हाल में उजागर हुआ। इस तरह की कार्यप्रणाली है श्रम विभाग की। कर्मचारी या श्रमिक शिकायत करते हैं तो विभाग के अधिकारी सौदेबाजी कर लेते हैं। श्रम मंत्री प्रहलाद पटेल ने हरदा मामले की फाइल तो लौटा दी है, अब यह उम्मीद भी की जानी चाहिए कि तमाम निजी संस्थानों में श्रम अधिकारियों की मिलीभगत से जो शोषण हो रहा है, उस पर भी थोड़ी-बहुत लगाम कसी जाएगी। थोड़ा ही सही, न्याय मिलने का रास्ता तो खुलेगा।
– संजय सक्सेना