Friday, 17 May

भारत की जलवायु उपोष्ण (सब ट्रोपिकल) है जिसकी प्रादेशिक पहचान मानसूनी जलवायु के रूप में होती है। भारतीय मौसम के रचनातंत्र के कार्यों को मौटे तौर पर निम्नलिखित 3 रूपों में देखा जा सकता है-

  1. दाब तथा वायु धरातलीय वितरण
  2. ऊपरी वायु परिसंचरण, वायुराशियों का अंत प्रवाह तथा जेट प्रवाह
  3. शीत ऋतु में पश्चिमी विक्षोभों तथा वर्षा ऋतु में उष्ण

कटिबंधीय चक्रवातों के आने से वर्षा का होना । शीतकाल में भारतीय मौसम सामान्यतः मध्य एवं पश्चिमी एशिया के दाब के वितरण से प्रभावित होता है। हिमालय के उत्तर में स्थित उच्च दाब केन्द्र से प्रायद्वीप की ओर शुष्क वायु चलने लगी है। मध्य एशिया साइबेरिया के अधिक दबाब के केन्द्र से बाहर की तरफ चलने वाली धरातलीय पवने भारत में शुष्क महाद्वीपीय व्यापारिक पवनों के रूप में आती हैं। यहां उत्तर-पश्चिमी महाद्वीपीय पवन भारतीय व्यापारिक पवनों के मिल जाती हैं। कभी-कभी यह मध्य गंगा घाटी तक पहुंच जाती है जिससे मध्य गंगा घाटी तक का संपूर्ण क्षेत्र उत्तर पश्चिमी पवनों के प्रभाव में आ जाता है।

वायु का उपर्युक्त प्रारूप केवल धरातल के निकट ही होता है। लगभग तीन किलोमीटर की ऊंचाई पर स्थिति कैसे बिल्कुल भिन्न होती है। समस्त पश्चिमी एवं मध्य एशिया से ऊंचाई पर पश्चिमी पवनों से प्रभावहीन रहता है। ये पवनें हिमालय के उत्तरी भाग में उसे लगभग समानांतर चलती है। इसे जेट प्रवाह कहते हैं। हिमालय एवं तिब्बत की उच्च भूमियों में अवरोध पैदा करती हैं जिससे जेट प्रवाह दो शाखाओं में बंट जाता है। इसकी एक धारा हिमालय के उत्तर में तथा दूसरी हिमालय के दक्षिण में पश्चिम पूर्व दिशा में 25° उत्तरी अक्षांश के ऊपर प्रवाहित होने लगती हैं। यहां वायुदाब 200 से 300 मिलीबार होता है। जेट प्रवाह की यह दक्षिणी शाखा भारत में शीत ऋतु के निर्माण को बहुत हद तक प्रभावित करती है। शीतकाल में भारत के उत्तर पश्चिमी भाग में आने वाले चक्रवात इस जेट प्रवाह द्वारा ही लाए जाते हैं। 

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ग्रीष्मकाल के आगमन के साथ ही सूर्य उत्तर की ओर स्थानांतरित हो जाता है और धरातलीय एवं उच्चस्तरीय वायु का परिसंचरण विपरीत दिशा में होने लगता है। जुलाई में धरातल के निकट भूमध्य रेखीय निम्न दाब कटिबंध उत्तर की ओर स्थानांतरित होकर हिमालय के लगभग समानांतर 25° उत्तरी अक्षांश पर आ जाता है। इसे भूमध्य रेखीय द्रोणी भी कहते हैं इस वक्त तक पश्चिमी जेट-प्रवाह भारतीय इलाको से लौट जाती है। कम दबाब का क्षेत्र होने के वजह से यह भूमध्य रेखीय द्रोणी, वायु को अलग-अलग दिशाओं से अपनी ओर खींचती है। दक्षिणी गोलार्द्ध से सामुद्रिक उष्णकटिबंधीय वायु भूमध्यरेखा को पार करने के पश्चात इस न्यून वायुदाब वाले क्षेत्र की ओर प्रवाहित होती है यही दक्षिणी-पश्चिमी मानसून कहलाता है।

क्षोभमण्डल के ऊपरी स्तरों में दिशा इसमें बिल्कुल भिन्न होती है। उत्तरी भारत पर एक पूर्वी जेट-प्रवाह 150 मिलीबार के दाब स्तर पर बहता है। यह जेट प्रवाह उष्ण कटिबंधीय चक्रवातों को भारत की ओर आकर्षित करता है।

भारत की जलवायु में मानसून का प्रारम्भ

ग्रीष्म ऋतु में भारत के उत्तर पश्चिमी भाग में तापमान बहुत ऊंचा हो जाता है, जिसके कारण वहां पर निम्न वायुदाब क्षेत्र विकसित हो जाता है। इसके विपरीत हिन्द महासागर अपेक्षाकृत ठण्डा रहता है और वहां उच्च वायुदाब बना रहता है। इससे अंतरउष्ण कटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र उत्तर की ओर स्थानांतरित हो जाता है। इसके परिणामस्वरूप दक्षिण-पूर्वी व्यापारिक पवनें भूमध्य रेखा को पार कर जाती हैं और दिशा परिवर्तन के बाद में दक्षिण-पश्चिम मानसून के रूप में भारत में प्रवेश करती हैं।

पूर्वी जेट प्रवाह की उत्पत्ति हिमालय तथा तिब्बत के उच्च स्थलों के ग्रीष्म तापन से होती है। ये भाग 4000 मीटर ऊंचा है। इन उच्च स्थलों में हुए विकिरण से क्षोभ मण्डल में दक्षिणवर्ती परिसंचरण आरम्भ हो जाता है और वायु दो धारा ओ में बंट जाती है जो एक दूसरे के विपरीत दिशा में प्रवाहित होती है। इनमें से एक भूमध्य रेखा की बहने लगती है और पूर्वी जेट प्रवाह कहलाती है। दूसरी उत्तरी ध्रुव को ओर बहने लगती है और पश्चिमी जेट-प्रवाह कहलाती है। ज्ञात रहे कि पश्चिमी जेट प्रवाह ग्रीष्म ऋतु में भी मध्य एशिया के ऊपर बहती है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि भारतीय जलवायु पर हिमालय तथा तिब्बत का बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है।

दक्षिण-पश्चिमी मानसून सबसे पहले केरल तट पर पहुंचता है। फिर यह मुम्बई तथा कोलकाता तक पहुंच जाता है। उसके बाद मानसून सम्पूर्ण भारत में सक्रिय हो जाता है। मानसूनी वर्षा निरंतर नहीं होती। कुछ देर वर्षा होने के बाद शुक दौर आता है भारत के उत्तरी मैदान में बंगाल की खाड़ी में उत्पन्न होने वाले उण कटिबंधीय चक्रवात वर्षा करते हैं। जबकि पश्चिमी तटीय भाग में वर्षा दक्षिण पश्चिमी मानसून द्वारा होती है। भारत के पश्चिमी तट पर वर्षा की गहनता समुद्र तट से दूर घटने वाली मौसमी दशाओं तथा पूर्वी अफ्रीका के समुद्री तट के साथ भूमध्य रेखीय जेट-प्रवाह की स्थिति पर निर्भर है।

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बंगाल की खाड़ी से उठने वाले उष्णकटिबंधीय चक्रवातों की संख्या तथा उनका मार्ग अंतः उष्णकटिबंधीय अभिसरण की स्थिति पर निर्भर करता है। इसे मानसून द्रोणी कहते है। अंतः उष्णकटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र की स्थिति में परिवर्तन होने से वर्षा की मात्रा तथा उसके वितरण में परिवर्तन आ जाता है। पश्चिमी तट पर पश्चिम से पूर्व तथा उत्तर-पूर्व की ओर तथा उत्तरी मैदान में एवं प्रायद्वीप के उत्तरी भाग में दक्षिण-पूर्व से उत्तर पश्चिम की ओर वर्षा कम होती जाती है।

भारत की जलवायु में मानसून में विच्छेद

यदि मानसूनी हवाएँ दो सप्ताह से अधिक अवधि के लिए वर्षा करने में असफल हो जाती है तो वर्षा काल में शुष्क समय आ जाता है, इसको मानसून का विच्छेद कहते है। इसका कारण या तो उष्णकटिबंधीय चक्रवातों में कमी आना या भारत में अंतः उष्णकटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र की स्थिति में परिवर्तन आना है। पश्चिमी तटीय भाग में शुष्क दौर तब आता है जब वाष्प से लदी हुई वायु तट के समानान्तर चलती है। पश्चिमी राजस्थान में तापमान की विलोमता जलवाष्प से लदी हुई वायु को ऊपर उठने से रोकती है और वर्षा नहीं होती।

भारत की जलवायु में मानसून का प्रत्यावर्तन 

दक्षिण-पश्चिमी मानसून भारत के उत्तर-पश्चिमी भाग में 1 सितम्बर को लौटना शुरू कर देती हैं और 15 अक्टूबर तक यह दक्षिणी प्रायद्वीप को छोड़कर शेष समस्त भारतीय क्षेत्र से लौट जाती हैं। लौटती हुई पवनें बंगाल की खाड़ी से जलवाष्प ग्रहण के उत्तर-पूर्वी मानसून के रूप में तमिलनाडु पहुंच कर वहां पर वर्षा करती है। मानसून पवनों का आगमन तथा उनकी वापसी विभिन्न क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न है देश के उत्तर-पश्चिमी भाग में मानसून सबसे बाद में पहुंचता है तथा सबसे पहले वहां से वापस लौटता है।

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