दैनिक भास्कर की ये खबर कोई नयी बात नहीं है। कई महिनों से यह बात मैं उठाता आ रहा हूं। और इसकी शुरुआत मैंने शिवराज सरकार द्वारा निकाली गई “विकास यात्राओं” से की थी। मुद्दा था सरकारी धन से भाजपा का प्रचार और भाजपा के चुनाव चिन्ह के रूप में उपयोग में लाया जाने वाला कमल का फूल। वही फूल जी 20 में भी प्रयुक्त हुआ। कमलनाथ जी के बंगले पर हुए पत्रकार समागम में मीडिया प्रमुख ने मुझसे कहा था कि हम लोग इस मुद्दे पर हाईकोर्ट जा रहे हैं लेकिन कोई नहीं गया।
जिन योजनाओं को लेकर शिवराज सरकार विकास यात्राओं द्वारा घर-घर जाकर हितग्राहियों को लाभ पहुंचाने का दावा कर रही थी, शिवराज सरकार ने उन्हीं दस योजनाओं का हितग्राहियों पर यानि जनता पर उन योजनाओं के प्रभाव को जानने के लिये सर्वे कराया। इसके लिये नोयडा की एक कम्पनी को लगभग सवा छः करोड़ रुपयों का भुगतान भी किया। भुगतान 85,800 स्टडी सैम्पल्स के लिये प्रति स्टडी सैम्पल के हिसाब से किया। और इन्हीं स्टडी सैम्पल्स के लिये नियम विरुद्ध मुझसे जमा कराये गये 6306/- रुपयों को आज पूरे 42 दिन हो जायेंगे। जनसम्पर्क विभाग कोई जवाब देने तक को तैयार नहीं है।
बात इतनी ही नहीं है। मैंने 30 सितम्बर की अपनी पोस्ट के साथ ही इसी कम्पनी को दिये गये मेन पॉवर सप्लाई के काम का जिक्र भी किया था, जिसका एक साल का बजट सात करोड़ से ऊपर था (लिंक कमेन्ट बॉक्स में)। इसके अलावा आठ करोड़ से ज्यादा का काम ब्राण्डिंग व कैंपेन का भी इसी कम्पनी को दिया गया। और उस पर भी यह कि ये काम भी इस कम्पनी द्वारा चयनित एजेंसियों को दिया जाना था। सोशल मीडिया और विज्ञापन का काम अलग से। आज दैनिक भास्कर ने इन्हीं में से एक खबर प्रकाशित की है। और यह खबर भी मेरी इस बात को ही सिद्ध कर रही है कि भाजपा का प्रचार भी जनसम्पर्क विभाग द्वारा ही किया जा रहा है? जो लोकतंत्र की हत्या करने में अग्रणी भूमिका निभाता रहा है। फिर मुझे अचानक वह दृश्य भी याद आता है कि लगभग 20-22 दिन पहले जनसम्पर्क विभाग में विज्ञापन का कार्य देखने वाले अधिकारी के पास एक सेठ और एक पत्रकार संगठन के नेता बैठे हुए थे। ये तीनों मुझे देखकर बिचक गए। पिछली बार विज्ञापनों के भुगतान को लेकर हुए विवाद के बाद किसी और को पार्टी के विज्ञापन का काम दे दिया गया था। इस बार फिर इस काम की वापसी हो गई थी। लेकिन पार्टी के विज्ञापनों की देखरेख करने वाले सेठ का जनसम्पर्क विभाग में क्या काम था?
इतना सब हो रहा था और हो रहा है फिर भी इस मुद्दे पर काँग्रेस की चुप्पी? किस ओर इशारा करती है? भाजपा को राजनैतिक चन्दा सबसे ज्यादा मिलता है। यानि काँग्रेस चुनावी चन्दे में कमी के कारण फण्ड के लिये कमलनाथ पर ही ज्यादा निर्भर मानी जाती है? इसके बावजूद भाजपा के प्रचार में शासकीय धन और मशीनरी का उपयोग? ये एक बड़ा मुद्दा है लेकिन काँग्रेस इस पर चुप्पी साधे हुए है। और जो स्वतः व्यवस्था में बदलाव के लिए इन्फ्लुएन्सर बने हुए हैं, उनमें भी विपक्ष के इस बर्ताव से निराशा है।
कुछ दिन पहले एक वरिष्ठ पत्रकार ने अपनी एक पोस्ट में दावा किया था कि एक बार फिर डील हो चुकी है। उनकी पहली डील वाली बात सच निकल चुकी थी। इस बार की डील की बात अब फिर यकीन में बदलती सी लग रही है। काँग्रेस से नजदीक से जुड़े रहे एक पत्रकार भी बताते हैं कि जिस तरह से टिकिटों में बदलाव किये जा रहे हैं उनको देखकर भी यही लगता है कि कमलनाथजी के खिलाफ एक धड़ा गेम फिक्स कर चुका है। पिछले सर्वे में जो काँग्रेस 130-140 सीटों पर बताई जा रही थी अब टक्कर में दिखाई जा रही है? मतदान की तारीख नजदीक आते आते न जाने क्या स्थिति बनती है? औपचारिक प्रेस कान्फ्रेन्सेज़ को छोड़ दें तो काँग्रेस कहीं भी अटैकिंग नहीं दिखाई देती। उससे जुड़े लोगों और कार्यकर्ताओं में भी अब वह उत्साह दिखाई नहीं दे रहा है जो लगभग एक माह पहले हुआ करता था। कुछ सूत्र तो यह भी दावा कर रहे हैं कि सिंधिया जी ने बाकी नेताओं को भी राह सुझा दी है। किसी तरह सरकार बन भी जाये तो एक धड़ा धोखा दे सकता है। प्रदेश की जनता विधानसभा में भी उपनेता प्रतिपक्ष को चलती विधानसभा में पाला बदलते देख चुकी है। दोनों पार्टियों के एक धड़े की फिक्सिंग को तोड़ना कमलनाथ के अलावा खुद मोदी-शाह के लिये भी मुश्किल है। अभी के गणित तो यही बताते हैं कि मध्यप्रदेश में शिवराज फिर से मुख्यमंत्री बन सकते हैं और 2024 में बनने वाली केन्द्र की सरकार में मोदीजी के लिये चुनौती बन सकते हैं। फिलहाल वे मध्यप्रदेश में मोदीजी के चेहरे को ब्राण्डिंग का मुख्य चेहरा बनने के मामले में पटखनी दे चुके हैं। ये भी बड़ी रोचक कहानी है जो फिर कभी…
हाँ, मोदीजी शिवराज से यह बात तो सीख ही चुके हैं कि सरकारी मशीनरी और धन का उपयोग पार्टी के प्रचार में किस तरह किया जा सकता है? आई.ए.एस. प्रचार रथ के प्रभारी? और सेना के लोग व छोटी-छोटी बच्चियों द्वारा सरकारी योजनाओं का प्रचार? एकाध सेल्फी पाइंट पर सेल्फी लेकर आप भी इस बात को महसूस कर सकते हैं।
सरकार के पास युवाओं के लिये रोजगार नहीं है लेकिन ऐसी कम्पनियों की आड़ में अपनों के लिये ऐसी खैरातें बहुत हैं। उसके लिये धन की कोई कमी नहीं है। क्या यह संविधान प्रदत्त समानता और रोजगार के लिये समान अवसरों के मौलिक अधिकारों का स्पष्ट हनन नहीं है? जनधन की इस लूट पर जनता को विकल्प तलाशना होगा।