मैं घर में सब से छोटा था मिरे हिस्से में माँ आई
अलीम बजमी
भोपाल। गंगा-जमुनी तहजीब के हिमायती अजीम शायर मुनव्वर राना (71) नहीं रहे। फानी दुनिया को अलविदा कह दिया। हुस्न और इश्क के बदले मां की अहमियत पर जज्बाती कलाम लिखकर देश-दुनिया में वे काफी मकबूल हुए। वे मां के व्यक्तित्व और कृतित्व पर सर्वाधिक लिखने वाले संभवतः पहले शायर है। सिर्फ इतना ही नहीं बेटी की अहमियत पर भी लिखा। उनकी शायरी में इंसानियत, मजलूम, मासूम, गुरबत, अहसास, दर्द के साथ ही दरवेशी अंदाज भी देखने को मिलता है। हिंदी और उर्दू के रिश्तों को अहमियत देते कलाम भी लिखे। वे सलीके से अदबी जलसों में अपनी बात कहते । सीधे सपाट लफ़्ज़ों में गहरी बात कह देना , उनका एक फन रहा। वे इस हुनर के शायर रहे। बात बात पर ठहाके लगाना और संजीदा लहजे में मजाक का अंदाज निराला रहा। कभी मखमली तो कभी आतिशी तेवर रखने वाले राना मां एवं बेटी पर लिखा कलाम जब सुनाते तो पूरे मजमे में खामोशी छा जाती। कई श्रोताओं की आंखें छलछला उठती। इसे वे अपना अवार्ड कहते। उन्होंने बेटी पर शेर कहा है… ऐसा लगता है कि जैसे खत्म मेला हो गया,उड़ गई आंगन से चिड़िया घर अकेला हो गया।
उनकी शायरी बेनजीर और नायब है। उसमें रिश्तों की खुशबू है। पाकीज़गी है। फूहड़ लफ्ज़ कभी उनके कलाम का हिस्सा नहीं बने।
26 नवंबर 1952 को उत्तर प्रदेश के रायबरेली में जन्मे राना का अंदाज-ए-बयां अलग था। उनकी शायरी में बेबाकी थी। वे अपनी शायरी में देश के हालात को बड़े खूबसूरत अंदाज में पेश करते थे। वे ऐसी शख्सियत हैं, जो वक्त की धूल में कभी खो नहीं सकते। अपनी शायरी में फारसी और उर्दू के कठिन लफ्ज का इस्तेमाल करने से हमेशा परहेज किया। उनकी गजल, नज्म आम आदमी को जल्दी समझ में आती । हिंदी, उर्दू के साथ अवधी लफ्जों का कई शेरों में उन्होंने बखूबी इस्तेमाल किया। अपनी शायरी में उन्होंने गरीबों के स्वाभिमान जिक्र करते हुए शेर कहा था….. सो जाते हैं फ़ुटपाथ पे अख़बार बिछा कर , मज़दूर कभी नींद की गोली नहीं खाते । यह शेर काफी लोकप्रिय हुआ। सिस्टम को झटका देते हुए उन्होंने आम आदमी का एक शेर कहा था, जिसे खूब सराहना मिली कि….एक आँसू भी हुकूमत के लिए ख़तरा है , तुम ने देखा नहीं आँखों का समुंदर होना । गुरबत के मारे बच्चों और उनके बचपन को लेकर एक शेर है, जिसमें एक कहानी भी है….फ़रिश्ते आ कर उन के जिस्म पर ख़ुश्बू लगाते हैं , वो बच्चे रेल के डिब्बों में जो झाड़ू लगाते हैं । वो ठहरते नहीं है, अपनी बेबसी को भी बयां करते हैं, ….बच्चों की फ़ीस उन की किताबें क़लम दवात मेरी ग़रीब आँखों में स्कूल चुभ गया । भारत-पाक विभाजन के दर्द पर उन्होंने खूब लिखा है। उनकी ग़ज़ल का एक शेर है…मुहाजिर हैं मगर हम एक दुनिया छोड़ आए हैं, तुम्हारे पास जितना है हम उतना छोड़ आए हैं।
उर्दू एवं हिन्दी अदब में अपना खास मुकाम बनाने वाले शायर मुनव्वर राना का जाना उर्दू अदब का बड़ा नुकसान है। रविवार देर रात को कार्डियक अरेस्ट के चलते फानी दुनिया को उन्होंने अलविदा कह दिया। हांलाकि कई दिनों से वे बीमार चल रहे थे। किडनी और हार्ट जैसी बीमारियाें से वे जूझ रहे थे। कई बार उनका डायलिसिस भी हुआ।
राना का विवादों से भी काफी नाता रहा। खास तौर पर उर्दू साहित्य के लिए 2014 का साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने पर वे काफी चर्चा में रहे। ये फैसला बढ़ती असहिष्णुता के कारण लिया था तो 2022 में यूपी में हुए विधानसभा चुनाव से पहले मुनव्वर राना सामाजिक न्याय में भेदभाव और अल्पसंख्यक वर्ग की उपेक्षा को लेकर काफी मुखर भी रहे। राना साहब के व्यक्तित्व, कृतित्व, शायरी पर जितना भी लिखा जाए उतना कम है। अदबी जलसों की शमा बुझने का मुझे बहुत गम है। अल्लाह उन्हें जन्नत में आला मुकाम आता करें। आमीन।