मध्य प्रदेश में मात्र दो दिन बाद विधानसभा चुनाव हैं। चुनाव परिणाम का पूर्वानुमान लगाने का मैं कभी प्रयास नहीं करता क्योंकि युद्ध और चुनाव के परिणाम के बारे में कुछ भी निश्चित बात करना, मेरी सीमित बुद्धि से तो कदापि संभव नहीं है। मैदानी स्तर पर भाजपा (जिसे मैनें अपने जीवन का एक महत्त्वपूर्ण काल समर्पित किया था) को जैसा देख रहा हूँ उसके आधार पर केवल दो बातें कहना चाहता हूँ।
पहली बात – भाजपा चुनाव नहीं लड़ रही है
चौंकिए मत। अधिकृत रूप से भाजपा अभी भी चुनाव के मैदान मैं है। पर मैं जिस पार्टी को जानता था, उसका लगभग नब्बे प्रतिशत या तो निष्क्रिय हो गया है या दबी जुबान से भाजपा प्रत्याशियों का विरोध करने में लगा है। पार्टी कार्यकर्ताओं और नेताओं से होती है, जब वे मन से पार्टी से दूर हो जाते हैं तो पार्टी समाप्त हो जाती है। अभी दो दिन पूर्व मैं एक वरिष्ठ भाजपा नेता से मिलने गया। वे फोन पर किसी कनिष्ठ को समझा रहे थे कि मन में कुछ भी हो, नित्य पार्टी कार्यालय जाया करो और चेहरा दिखाया करो। आज भाजपा में चेहरा दिखाने वाले, फोटो खिचाने वालों की तो भरमार है पर पार्टी को दिल-ओ-जान से अपना समझने वाले लुप्त हो गए हैं। केवल मोदी, शाह और शिवराज तो पार्टी नहीं हो सकते। मेरे पास ऐसे नामों की एक बहुत लम्बी फेहरिस्त जो आज से दो दशक पूर्व तक भाजपा का चेहरा हुआ करते थे और आज परिदृश्य से ओझल हैं। इसीलिये मैं मानता हूँ कि भारतीय जनता पार्टी नामक पार्टी चुनाव रूपी युद्ध से गायब हो गयी है।
दूसरी बात – पार्टी में बेशर्मी से पैसे खाने की संस्कृति
जब सरकारी पैसे का गबन किया जाए तो उसे भ्रष्टाचार कहा जाता है। पर जब पार्टी फंड या चुनावी पैसे को बिना डकार लिए खा जाया जाए तो उसे भ्रष्टाचार नहीं राजनैतिक सूझबूझ और चतुराई कहते हैं। चुनाव में पैसे का उपयोग मतदाता को पक्ष में करने के लिए किया जाना चाहिए। पर मतदाता तक पैसा या सन्देश पहुँचने के लिए एक लम्बी चेन या पाइपलाइन से गुजरना होता है। यदि पाइपलाइन ही पैसे को निगलने लगे तो पूरा पैसा व्यर्थ जाता है। आज से दो दशक पूर्व जब मैं भाजपा में सक्रिय था तो भाजपा में समर्पित कार्यकर्ताओं की फ़ौज थी जो अपने घर से पैसा लगाकर कार्य करते थे। आज स्थिति बदल गयी है। मैनें एक भाजपा नेता से पूछा कि यदि एक लाख मतदाताओं के पास प्रति मतदाता दस हजार रूपए पहुँचाने के लिए किसी विधानसभा क्षेत्र मैं सौ करोड़ रूपए पहुँचाये जाएँ तो कितने मतदाताओं तक कितने रूपए पहुँचेंगे (मैं जानता हूँ कि यह अवैधानिक है और अपराध है, प्रश्न काल्पनिक है)। नेताजी हँसने लगे। जब पार्टी में सिद्धांत शून्य हो जाते हैं और येनकेनप्रकारेण सत्ता प्राप्ति और सत्ता के माध्यम से घर भरना ही एकमात्र ध्येय हो जाता है तो ईमानदारी की अपेक्षा नहीं की जा सकती। जब अंतिम लक्ष्य घर भरना ही है तो चुनाव के बाद तक प्रतीक्षा क्यों की जाए – शुभस्य शीघ्रम – शुभ कार्य जितना जल्दी किया काये उतना अच्छा।
अब इन दोनों का चुनाव परिणाम पर क्या असर पड़ेगा यह तो आप जैसे बुद्धिमान विद्वान समझें। मैनें अपनी सीमित बुद्धि और दृष्टि से जो देखा वह आपको बता दिया। बाकी आप जानो या इस प्रदेश की जनता जाने।
अनिल चावला
१५ नवम्बर २०२३