क्या केंद्रीय नेतृत्व और राज्य के नेताओं, कार्यकर्ताओं की बेरुखी से व्यथित शिवराज की पीड़ा सहानुभूति लायक है?
सोशल मीडिया पर शिवराज की प्रतिक्रियाएं ऐसा ही माहौल बनाने की कोशिश करती दिखाई दे रही है।
हकीकत क्या है?
संजीव आचार्य
मेरा मानना है कि मोदीराज में चाहे संजय जोशी प्रकरण हो, आडवाणी- मुरलीमनोहर जोशी को मार्गदर्शक मंडल में डाले जाने का मसला हो, सुमित्रा महाजन, सुषमा स्वराज और उमा भारती को टिकट नहीं दिए जाने का फैसला हो या फिर हाल ही में मध्यप्रदेश में पार्टी के चौथी बार सत्ता में आने के बावजूद शिवराज को हाशिये पर बैठाने का मुद्दा है; इन निर्णयों के पीछे बाकायदा ठोस कारण हैं।
सबसे पहले शिवराज की बात करते हैं जो कि बेहद चालाक, लो प्रोफाइल रहकर हाई जम्प लगाने वाले खिलाड़ी हैं। प्रमोद महाजन से नजदीकियां मुख्यमंत्री की कुर्सी तक लाई। वो तो चूंकि गोविंदाचार्य कमजोर हो गए वरना प्रमोद महाजन सारी तिकड़मों के बावजूद साध्वी उमा भारती को कुर्सी से हटवाने में कभी कामयाब नहीं हो पाते। खैर, मुख्यमंत्री बनने के बाद शिवराज सिंह ने एक एक करके उमा भारती, प्रभात झा, प्रह्लाद पटेल, कैलाश विजयवर्गीय, नरोत्तम मिश्रा, सबको प्रभावहीन करने में कोई कसर बाकी न रखी। अपने लंबे शासनकाल में उन्होंने सत्ता को अपने घर और कार्यालय तक नियंत्रित कर लिया।
यह सर्वविदित है कि उनके मुख्यमंत्री रहते न किसी मंत्री का प्रभाव था और न ही संगठन का। छोटे से ट्रांसफर से लगाकर बड़े बड़े ठेके- आवंटन सब उनके बंगले से ही हुए। चाहे केंद्र में पहले आडवाणी फिर नितिन गडकरी या राजनाथ सिंह राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे, वेंकैया नायडू या अनन्त कुमार प्रदेश प्रभारी रहे, शिवराज ने सबको साधे रखा। कैसे, वो वही जानें। प्रदेश के नेताओं, कार्यकर्ताओं ने दिल्ली जाकर खूब शिकायतें की। लेकिन शिवराज सिंह का कभी बाल तक बांका नहीं हुआ। डम्पर कांड हो या व्यापम घोटाला, ई टेंडर घोटाला हो या भर्ती-पेपर लीक कांड। मामा सबको ठेंगा दिखाते रहे।
2019 के विधानसभा चुनाव में भाजपा उनके नेतृत्व में सत्ता से बाहर हुई, कमलनाथ मुख्यमंत्री बन गए। काँग्रेस अपनी गलतियों से सत्ता लुटा बैठी तो भाजपा के राज्य के नेताओं को उम्मीद थी कि अब तो हाईकमान किसी और को मुख्यमंत्री बनाएगा। लेकिन तब तक दिल्ली दरबार और संघ परिवार के प्रमुख सूत्रधारों को कैसे साधना है, इसके माहिर हो चुके चौहान चौथी बार मुख्यमंत्री बन गए।
स्वाभाविक था कि अब तो शिवराज पूर्णतः निरंकुश हो गए। न किसी निगम या बोर्ड में किसी की नियुक्ति की न जिलों के विकास प्राधिकरण में स्थानीय नेताओं को मनोनीत किया। संगठन के नेताओं से भी दूर से मिलने लगे। ट्रांसफर पोस्टिंग, ठेके-आवंटन सबमें भारी भ्रष्टाचार की खुलेआम चर्चाएं होने लगी। केंद्रीय नेताओं से शिकायत के बाद आश्वासन लेकर प्रदेश लौटने वाले नेता मीडिया को अनौपचारिक बातचीत में शिवराज के हटाये जाने की तारीखें छपवाते रहे। नतीजा यही रहा कि शिवराज खुलकर विरोध करने वालों की खिल्ली उड़ाते हुए निरंकुश शासन करते रहे।
राज्य में काँग्रेस की सत्ता में वापसी के चुनाव पूर्वी सर्वे इन्हीं नेताओं कार्यकर्ताओं की उपेक्षा से उपजी नाराजगियों और हराने की आशंकाओं के आधार पर थे।
पानी सर से ऊपर उठता देख अमित शाह ने कमान संभाली और चुनावी रणनीति, प्रत्याशी चयन, प्रचार सब से शिवराज को बाहर कर दिया। यह संदेश दिया गया कि सत्ता में आये तो शिवराज मुख्यमंत्री नहीं होंगे। सभी नाराज वरिष्ठ नेताओं को तरजीह दी गई, टिकट दी गई। सरकार बन गई, सभी ने कमोबेश जूनियर मोहन यादव को स्वीकार कर लिया।
अब अगर होर्डिंगों से शिवराज का फोटो हट गया तो वो किस आधार पर स्यापा कर रहे हैं? जो बोया है वही तो काट रहे हैं!
यही संजय जोशी और उमा भारती के साथ हुआ। अरे भाई राजनीति कर रहे हो, नरेंद्र मोदी के खिलाफ सारी तिकड़म की, चुनाव तक लड़ लिया, विनाश पुरुष तक कह दिया! अब अगले की चल रही है तो किनारे तो लगोगे ही!
लालकृष्ण आडवाणी और मुरलीमनोहर जोशी को सक्रिय राजनीति से बाहर करने का फैसला आर एस एस का है। इन दोनों ने सत्ता में रहते समय संघ से दूरी बनाने और खुद को व्यक्तिगत बड़ा नेता मानने की गलती की। संघ से निकले, संघ ने बनाया, फिर संघ को ही आंखे दिखाई। लिहाजा घर बैठे हैं। जो बोया वही काट रहे हैं!
नाना हो या मामा, सबका कटेगा पंचनामा। और हाँ, यही फर्क है काँग्रेस और भाजपा की कार्यशैली में। इसीलिए काँग्रेस में क्षत्रप हावी और हाईकमान लाचार है। सुधार की कोई गुंजाइश नहीं है।