देश-दुनिया में स्वास्थ्य बीमा का दौर कुछ ज्यादा ही तेज चलता दिख रहा है। हालांकि स्वास्थ्य बीमा अब जरूरी सा हो गया है, लेकिन इस आवश्यकता का ही बीमा कंपनियां भरपूर लाभ भी उठा रही हैं। एक तरह से देखा जाए तो अधिकांश कंपनियां लूट ही रही हैं, तभी तो स्वास्थ्य बीमा बहुत बड़ा कारोबार हो गया है।
वैसे तो स्वास्थ्य सुविधाएं सरकार की जिम्मेदारी होना चाहिए, लेकिन यह क्षेत्र बुरी तरह से निजी कारोबारियों के हाथों में कैद होता जा रहा है। होता क्या जा रहा है, बल्कि लगभग हो ही चुका है। निजी अस्पताल अरबों का व्यवसाय कर रहे हैं। इसी तर्ज पर अब स्वास्थ्य बीमा का व्यवसाय भी बढ़ रहा है। वैसे तो बीमा का व्यवसाय ही अपने आप में बड़े फायदे वाला साबित हो रहा है, लेकिन स्वास्थ्य बीमा तो सामान्य बीमा से बहुत आगे निकल चुका है। बीमा कराने वाला सामान्य तौर पर यह सोच कर राहत महसूस करता है कि कभी भी कोई बीमारी होगी तो तुरंत इलाज भी मिल जाएगा और बीमा में कवर भी हो जाएगा।
लेकिन यह उसकी गलतफहमी ही साबित हो रही है। स्वास्थ्य बीमा के बावजूद इलाज कराना आसान नहीं है। ऐन वक्त पर मेडिक्लेम रिजेक्शन के मामले लगातार बढ़ते जा रहे हैं। और कोरोना के बाद ऐसे मामले ज्यादा तेजी से बढ़े हैं। बीमा लोकपाल की रिपोर्ट बताती है कि बीते एक साल में उसके पास हेल्थ इंश्योरेंस से जुड़ी 29,153 शिकायतें पहुंचीं। इनमें 80 प्रतिशत यानी 12,348 बिना सुनवाई खारिज कर दी गई। ज्यादातर में रिजेक्शन का आधार किसी लत को छिपाना बताया गया। 20 प्रतिशत केस में ही ग्राहकों को न्याय मिला।
राजधानी भोपाल के ही दर्जनों उदाहरण ऐसे सामने आए हैं, जिनमें बीमा कंपनियां बिना ठोस कारण बताए क्लेम खारिज कर देती हैं। जब ग्राहक बीमा लोकपाल में इसे चुनौती देते हैं तो उन्हें 18-18 पेज की नियम शर्तें थमा दी जाती हैं। कई मामलों में कंपनियां क्लेम के समय डॉक्टरों को प्रेफर्ड नेटवर्क से बाहर करने की धमकी देकर बीमारी को किसी लत से जोडऩे का भी दबाव बना चुकी हैं। ऐसी स्थिति में ग्राहक सीधे उपभोक्ता आयोग या हाईकोर्ट पहुंच रहे हैं।
कायदे से पॉलिसी देने से पहले सभी अनिवार्य स्वास्थ्य परीक्षण किया जाए, ताकि लोग कोई भी बीमारी न छुपा सकें। हेल्थ पॉलिसी के नवीनीकरण के वक्त भी जांच होनी चाहिए। लोन और एडवांस के समय बैंकों द्वारा दी जाने वाली पॉलिसियों की नियम और शर्तों के बारे में ग्राहक को पूरी और सही-सही जानकारी दी जानी चाहिए। अगर थर्ड पार्टी एडमिन (टीपीए) कोई क्लेम रिजेक्ट कर दे या क्लेम राशि में कटौती करे तो इसकी जांच बीमा कंपनी को करनी चाहिए। लेकिन बीमा एजेंसियों के अधिकारी और एजेंट अपने कमीशन और पालिसीधारकों की संख्या बढ़ाने के चक्कर में जबर्दस्ती बीमा भी कर देते हैं और लोगों को गारंटी दे देते हैं कि उनकी हर बीमारी का इलाज करा देंगे।
वर्तमान में बीमा कंपनियां प्रचलित मान्यताओं के आधार पर क्लेम रिजेक्ट कर देती हैं। इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि जहां करोड़ों लोगों का स्वास्थ्य बीमा हो रहा है, वहीं देश में बीमा और हेल्थ इंश्योरेंस सेक्टर के लिए निश्चित कानून तक नहीं है। कंपनियां प्रीमियम मनमर्जी से तय कर रही हैं। आखिर यह कैसे संभव है कि एक बीमा कंपनी एक समान प्रीमियम पर एडिशनल कवर दे दे? अस्पतालों में एक ही बीमारी के इलाज के दाम अलग-अलग हैं। कोविड के बाद तो बीमा कंपनियां ज्यादा मुश्किलें खड़ी कर रही हैं। इससे मरीज मुश्किल में घिर जाते हैं। लेकिन व्यवसाय के चक्कर में लोग आम आदमी को बीमा के जाल में फंसाने में सफल हो जाते हैं।
यही कारण है कि हैल्थ बीमा बहुत बड़े फायदे का सौदा साबित हो रहा है। केवल कंपनियां ही नहीं, अस्पताल भी इसमें कमाई के हिस्सेदार होते हैं। कंपनियां उनके हिसाब से ही क्लेम तय करती हैं। इसमें इलाज का खर्च बढ़ा-चढ़ाकर बताया जाना आम बात है। हाल यह है कि राष्ट्रीय उपभोक्ता निवारण समेत अन्य आयोगों में 1.60 लाख बीमा क्लेम सहित कुल 5.78 लाख केस पेंडिंग हैं। हेल्थ इंश्योरेंस के मामले में बीमा लोकपाल का दावा है कि एक साल में 5972 केस में ग्राहक तो 3270 में कंपनी के हक में फैसले हुए। लेकिन छोटे-मोटे मामलों में लोग बीमा लोकपाल या उपभोक्ता आयोग जाते ही नहीं हैं।
देखने में आता है कि बीमा कराने वाले साठ प्रतिशत लोग तो उसका फायदा उठा ही नहीं पाते हैं। इनमें शर्तें इतनी होती हैं कि सामान्यत: लोग बिना बीमा के ही बहुत सारा इलाज करवा लेते हैं। वैसे भी बीमा कंपनी हर बीमारी का इलाज करवाती भी नहीं है। और एक शर्त यह भी कि ऐसी बीमारी हो, जिसमें भर्ती होना जरूरी हो, उसी में बीमा मिलेगा। कई अस्पताल वाले तो लोगों के भर्ती का परचा बनाकर बीमा क्लेम ले लेते हैं और मरीज के साथ पैसा बांट लेते हैं। लेकिन ये फर्जीवाड़ा सही मायने में बीमार व्यक्ति नहीं करता है। इस तरह का गोरखधंधा अस्पताल और बीमा कंपनियों के लोग मिलकर ही करते हैं।
लेकिन इस समय बीमारियों का दौर कुछ ज्यादा ही चल रहा है। बीपीएल वाले तो मुफ्त इलाज के दायरे में आ जाते हैं, मुसीबत मध्यम वर्ग की होती है। सो वही इस चक्र में उलझ जाता है। और ठगा भी जाता है। स्वास्थ्य बीमा जरूरी हो गया है, पर इसका सही लाभ भी लोगों को मिले, यह सुनिश्चित करना होगा। वैसे हमारे देश में आयुष्मान या ऐसी अन्य योजनाओं में ही फर्जीवाड़ा हावी है, तो हैल्थ बीमा सेक्टर कैसे छूट सकता है? फिर भी, स्वास्थ्य का क्षेत्र हमारे जीवन से सीधे जुड़ा है, कहीं तो जरूरतमंदों की फिक्र हो।
– संजय सक्सेना