देश में न तो सांसदों और विधायकों का दलीय निष्ठा बदलना कोई नई बात रह गई है और न ही क्रॉसवोटिंग करना। लोकतंत्र की गेंद को फुटबाल की तरह जहां चाहें, किक मारकर फेकने का दौर चल रहा है। हाल ही में राज्यसभा की 15 सीटों के लिए हुए चुनाव में जिस तरह से बड़े पैमाने पर क्रॉस वोटिंग देखने को मिली, वह पहले की अपेक्षा संख्या में भी ज्यादा थी और आने वाले समय के लिए ज्यादा महत्वपूर्ण भी।
क्रास वोटिंग के इस बार के ट्रेंड ने कई मायनों में पुराने पैटर्न को तोड़ा है, जिससे पुरानी लाइन पर की जाने वाली आलोचनाएं ही असंगत लगने लगी हैं। जैसा कि पहले से अनुमान लगाया जा रहा था और तैयारियां भी की जा रही थीं, यूपी में हुई क्रॉसवोटिंग ने सबसे चर्चाओं में जगह पाई। एक तो यहां सीटों की संख्या सबसे अधिक थी। दूसरे, क्रॉसवोटिंग करने वाले विधायकों की संख्या भी ज्यादा रही। तीसरे, क्रॉसवोटिंग करने वाले विधायक का कद भी बड़ा था। समाजवादी पार्टी के मुख्य सचेतक यानि चीफ व्हिप तक क्रॉसवोटिंग करने वालों में शामिल रहे, जो रायबरेली के हैं। इसे आगामी लोकसभा चुनावों के लिहाज से भी महत्वपूर्ण माना जा रहा है। उनके भाजपा में शामिल होने और रायबरेली से टिकट लेकर विपक्षी दलों के संगठन इंडिया के लिए असुविधाजनक हालात पैदा करने की चर्चा है। रायबरेली गांधी परिवार की परंपरागत सीट रही है। यहां जिस तरह से धु्रवीकरण और भागमभाग हो रही है, ऐसा लगता है कि आने वाला समय ज्यादा खतरनाक हो जाए।
हिमाचल प्रदेश में क्रॉसवोटिंग ने न केवल कांग्रेस प्रत्याशी अभिषेक मनु सिंघवी को बेहद सुरक्षित मानी जा रही सीट पर झटका दे दिया, बल्कि राज्य सरकार के अस्तित्व के लिए भी चुनौती पैदा कर दी। राज्यसभा चुनावों के बहाने वह पुराना असंतोष बाहर आ गया जो राज्य में सरकार गठन के बाद से ही बना हुआ था और जिसे संबोधित करने का कोई कारगर प्रयास कांग्रेस नेतृत्व नहीं कर पाया था। वैसे भी कांग्रेस नेतृत्व बुजुर्ग और युवा वर्ग के बीच कशमकश के दौर से गुजर रहा है। हाईकमान अपनी पसंद को ज्यादा तरजीह देता दिखता है, बजाय इसके कि वास्तव में कौन ज्यादा जमीनी प्रभाव वाला है, कौन पार्टी के लिए अधिक बेहतर रहेगा।
जैसा कि आम तौर पर होता है इस बार भी एक तबका क्रॉसवोटिंग को सत्ता के दुरुपयोग और सत्तारूढ़ दल की अलोकतांत्रिक प्रवृत्तियों का परिणाम बता रहा है। लेकिन इस बार यह आलोचना धारदार नहीं मालूम हो रही तो इसलिए कि कांग्रेस भी इस मामले में पीछे नहीं रही। देश के तमाम राज्यों में भाजपा तोडफ़ोड़ में बहुत आगे निकल गई है, तो कर्नाटक में कांग्रेस ने भी अपना खेल दिखा दिया। वहां भाजपा के एक विधायक की क्रॉसवोटिंग से उसका एक प्रत्याशी जीत गया।
हालांकि केंद्र की मौजूदा सरकार को एनडीए से बाहर के भी कई दलों का समर्थन हर महत्वपूर्ण मौके पर मिलता रहा है, लेकिन फिर भी यह तथ्य अहम है कि लगातार दस साल शासन करने के बाद मौजूदा कार्यकाल के आखिर में भी सत्तारूढ़ गठबंधन ऊपरी सदन में बहुमत हासिल नहीं कर पाया। मंगलवार को मिली जीतों के बाद भी राज्यसभा में भाजपा की कुल सदस्य संख्या बहुमत के लिए जरूरी संख्या (121) से चार कम है। यह तब है, जब तमाम लालच, सीबीआई-ईडी के छापे और अन्य तरह के दबाव राजनीति में आम हो चले हैं। और सत्तापक्ष खुलकर इनका प्रयोग कर रहा है, ऐसा माना जा रहा है।
फिर भी, यदि हम लोकतंत्र की बात करें तो यह बात भुलाई नहीं जानी चाहिए कि लालच और दबाव में विधायकों का निष्ठा बदलना लोकतंत्र को कमजोर करने वाली प्रवृत्ति है। इसे किसी भी दल द्वारा अपनी ताकत या जीत के रूप में प्रचारित करना देश की लोकतांत्रिक चेतना को सवालों के घेरे में लाता है। लेकिन इन दिनों लोकतंत्र की बात कर कौन रहा है। कोई अपना व्यवसाय बचाने के लिए सत्तापक्ष के साथ जा रहा है तो कोई ईडी और सीबीआई के छापों से बचने के लिए। महाराष्ट्र के पूर्व सीएम अशोक चव्हाण के पहले हालांकि अजीत पवार का भी मामला सामने आ चुका था, लेकिन चव्हाण का मामला भी साफ तौर पर भ्रष्टाचार का था और इसी को लेकर कांग्रेस ने भी उन्हें हटाया था। अब वो क्लीन चिट की गंगा नहाने भाजपा में चले गए। यही नहीं, भाजपा ने उन्हें राज्यसभा भी भेज दिया।
लोकतंत्र की मर्यादाएं तो तार-तार होती दिख ही रही हैं, लगता है कि हम लोकतंत्र के अंतिम पायदान पर खड़े हैं। इसके आगे एक गहरी खाई है। सवाल केवल लोकतंत्र का नहीं है, सवाल उस जनता का है, जो न केवल मूकदर्शक बन कर यह सब देख रही है, अपितु अप्रत्यक्ष तौर पर इसे समर्थन भी दे रही है। उस गहरी खाई में लोकतंत्र को ठेंगा दिखाने वाले नहीं, अपितु ताली और थाली बजाने वाले ही पहले गिरेंगे और फिर उनकी चीखें सुनने वाला भी कोई नहीं होगा।
– संजय सक्सेना