आषाढ़ तो ठीक रहा, लेकिन सावन-भादों की झड़ी इस बार देखने को नहीं मिली। शुरू में तो ऐसा लग रहा था, मानो मानसून पूरी तरह से मेहरबान है, पर वर्षाकाल के प्रिय महीने सावन और भाद्रपद में मानसून रूठ ही गया। देश के हृदय प्रदेश के हालात कुछ अच्छे नहीं हैं। राज्य के भोपाल, इंदौर, ग्वालियर, उज्जैन सहित 45 जिलों में मानसून इस बार उम्मीदों पर खरा नहीं उतरा है। अगस्त महीने में इन जिलों में 12 प्रतिशत से लेकर 94 प्रतिशत तक कम बारिश हुई है, जबकि प्रदेश में अगस्त महीने में ही कोटे की 40 प्रतिशत तक बारिश का ट्रेंड है। भारतीय मौसम विभाग के वैज्ञानिकों का कहना है कि अगस्त में दो बार करीब 21 दिन तक मानसून ब्रेक रहा। सिर्फ आठ दिन ही पानी गिरा। इसके चलते अधिकांश जिलों में सूखे के हालात बन गए हैं।
मौसम विभाग की मानें तो मध्यप्रदेश में 1 जून से मानसून की एक्टिविटी शुरू हो जाती है, जो 30 सितंबर तक रहती है। मानसून के 4 में से 2 महीने जुलाई और अगस्त में अच्छी बारिश होती है, लेकिन इस बार जुलाई में पूर्वी मध्यप्रदेश में 25 प्रतिशत तक बारिश कम हुई, जबकि पश्चिमी हिस्से में 10 से 12 प्रतिशत ज्यादा बारिश दर्ज की गई थी। प्रदेश में 1 जून से 31 अगस्त तक कुल मिलाकर 26.05 इंच बारिश हो चुकी है, जबकि अब तक 30.81 इंच बारिश होनी चाहिए थी। इस हिसाब से 15 प्रतिशत कम बारिश हुई है। अगस्त महीने में 7.94 इंच पानी गिरा है, जबकि 13.15 इंच बारिश होनी चाहिए थी। इस हिसाब से करीब 40 प्रतिशत पानी कम गिरा है। इस बार भोपाल, इंदौर, ग्वालियर और उज्जैन में तो 11 साल में सबसे कम बारिश हुई है।
मौसम विभाग के वैज्ञानिक बताते हैं कि जुलाई के अंतिम दिनों में लो प्रेशर एरिया बना था। इसके चलते 4 से 5 अगस्त तक तो अच्छी बारिश हुई थी, परंतु इसके बाद करीब 15 दिन तक मानसून का बेहद कमजोर चरण आया। इस कारण मानसून ब्रेक जैसी स्थिति बनी रही। इसके बाद प्रदेश के पूर्वी हिस्से में तेज बारिश हुई, लेकिन पश्चिमी हिस्से में सामान्य से कम बारिश हुई। 24 अगस्त को फिर मानसून ब्रेक हो गया। इस कारण प्रदेश में अगस्त महीने में सामान्य से 40 प्रतिशत कम बारिश हुई।
हालांकि अभी उम्मीदें खत्म नहीं हुई हैं। सितंबर में मानसून से कुछ उम्मीद है। 4 से 5 सितंबर के आसपास बंगाल की खाड़ी में सिस्टम एक्टिव हो रहा है। 6 से 7 सितंबर तक लो प्रेशर एरिया एक्टिव हो सकता है। इससे पूर्वी हिस्से में मध्यम से भारी बारिश हो सकती है। यह सिस्टम 18 से 19 सितंबर तक एक्टिव रह सकता है। यानि कई इलाकों में बारिश का कोटा पूरा हो सकता है। प्रदेश की बात करें तो अब तक हुई मानसूनी बारिश की वजह से कोलार, बरगी, इंदिरा सागर, तवा और टिल्लर डैम ही छलके हैं। बाकी डैम खाली ही हैं। कोलार और बरगी डैम के गेट तो जुलाई में ही खुल गए थे। भोपाल की बात करें, तो बड़ा तालाब अभी भी ढाई फीट खाली है। इस कारण भदभदा और कलियासोत डैम के गेट नहीं खुल सके हैं। केरवा डैम भी खाली है।
सावन और भादों के महीने सूखे निकलते दिख रहे हैं। यानि मौसम कहीं न कहीं रूठा हुआ है। मौसम वैज्ञानिकों से लेकर पर्यावरण विशेषज्ञों की भाषा में कहें तो जलवायु परिवर्तन की मार देश और प्रदेश के कई हिस्सों पर पड़ रही है। मानसून के शुरुआती दिनों में ही देखा था कि कहीं बारिश बिल्कुल नहीं हुई और कहीं एकदम बाढ़ आ गई। राजधानी दिल्ली के तो तमाम हिस्से एक हफ्ते से लेकर पंद्रह दिनों तक पानी में डूबे ही रहे थे। उत्तरी हिस्से में पहाड़ दरकने की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं।
ये लक्षण कुछ ठीक नहीं दिख रहे हैं। जलवायु परिवर्तन को हमें थोड़ा नहीं, पूरी गंभीरता से लेना होगा। ग्लोबल वार्मिंग को लेकर भले ही पर्यावरण वैज्ञानिकों के मत अलग-अलग हों, लेकिन जलवायु परिवर्तन की गंभीर चेतावनियों को हमें नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। विकास के नाम पर हम जिस अंधी दौड़ में शामिल हो गए हैं, सावधान होना पड़ेगा। बहुत सोच समझकर परियोजनाएं बनाने का दौर चल रहा है। नगरीय नियोजन के साथ ही अब ग्रामीण नियोजन पर भी ध्यान देना होगा। यह ठीक है कि भूगर्भीय हलचलें अपने हिसाब से होती रहती हैं। लेकिन मानवीय गलतियों को दोहराने से बचना ही होगा। हम जो सावधानी बरत सकते हैं, वो तो बरतें। पहाड़ और जंगल के आंकड़े और अनुमान दिखाकर हम खुश हो जाते हैं, लेकिन हम ही पहाड़ और जंगल बर्बाद करने पर तुले हुए हैं। बड़ी परियोजनाओं ने पहाड़ी क्षेत्र को हिलाकर रख दिया है। मध्यप्रदेश का जंगल कागजों में तो बेहतर बताया जा रहा है, लेकिन उसकी सघनता लगातार कम हो रही है। भोपाल जैसे शहरों में जंगल बचे ही नहीं है। वाटर बाडीज खत्म की जा रही हैं। पहाडिय़ों को काट कर उन्हें अंदर खोखला कर रहे हैं, ऊपर ऊंची इमारतें बना रहे हैं। कहीं तो बे्रक लगाना होगा। अन्यथा मानसून ने अपने हिसाब से ब्रेक लगाना शुरू कर दिया तो मुसीबत आ जाएगी।
– संजय सक्सेना