नई दिल्ली। राष्ट्रपति की मंजूरी के बाद पर्सनल डेटा प्रोटेक्शन बिल-2023 अब कानून बन चुका है। ये बिल हाल ही में संसद के मॉनसून सत्र में पारित हुआ था। इस बिल को लेकर कई सांसदों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने चिंता जताई है। कहा जा रहा है कि ये एक्ट सूचना के अधिकार (RTI) के लिए ताबूत की आखिरी कील साबित हो सकता है। जब यह 2005 में लागू हुआ, तो इसे एक ‘सनशाइन कानून’ के रूप में सराहा गया, जो सरकारी सिस्टम को और पारदर्शी और जवाबदेह बनाएगा। लेकिन डेटा कानून से पहले भी, आरटीआई में कई नियमों को हटाना पड़ा।
RTI से मिला रास्ता, लेकिन फायदा कुछ नहीं हुआ
दिल्ली के दक्षिणपुरी इलाके में रहने वाली तलाकशुदा रीना (बदला हुआ नाम) लोगों के घरों में खाना बनाकर अपना गुजारा करती हैं। उन्होंने तमाम खर्चों से जूझते हुए सरकारी योजनाओं का फायदा उठाने के लिए 2012 में अपने तीन बच्चों के लिए एससी का कास्ट सर्टिफिकेट बनवाने की कोशिश की। कई महीनों वो दफ्तरों के चक्कर काटती रही लेकिन कुछ हासिल नहीं हुआ। दिल्ली सरकार उनके पति का एससी सर्टिफिकेट मांगती रही। उन्होंने बताया, ‘मैं एक दफ्तर से दूसरे दफ्तर के चक्कर काटती रही, लेकिन वहां कोई सुनने वाला नहीं था। कोई एक तलाकशुदा महिला की बात सुनने को तैयार नहीं था।
निराश होकर रीना ने 2016 में एक सामाजिक कार्यकर्ता की मदद से एक आरटीआई दायर की, जिसमें एकल एससी माताओं के लिए सरकारी नीति के बारे में जानकारी मांगी गई, जिन्हें अपने बच्चों के लिए सर्टिफिकेट की आवश्यकता थी। शुरुआत में उन्हें इसकी कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली, लेकिन रीना डटी रही। केंद्रीय सूचना आयोग (सीआईसी) को उसका मामला उठाने में दो साल लग गए और अगस्त 2018 में उसने सरकार को कार्रवाई करने का आदेश दिया। हालांकि आदेश में कहा गया था कि कोई ऐसा रास्ता निकलना चाहिए जिससे कास्ट सर्टिफिकेट बन सके, लेकिन इसका कोई फायदा नहीं हुआ। उनका छह साल का संघर्ष व्यर्थ प्रतीत हुआ।